सामाजिक न्याय
SC-ST एक्ट की अलोकप्रियता एवं वैधानिक औचित्य
- 23 Apr 2018
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चर्चा में क्यों?
20 मार्च को सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय गहन चर्चा का विषय बन गया है। इस निर्णय में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत तात्कालिक गिरफ़्तारी, अग्रिम जमानत न दिये जाने (CrPC की धारा 438 के अपवाद के रूप में) तथा FIR रजिस्ट्रेशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।
मुद्दा क्या है?
- ऐसा कहा जा रहा है कि यह निर्णय इस अधिनियम के प्रभाव को कम करता है तथा इस निर्णय के बाद दलितों पर होने वाले अत्याचार की घटनाओं में वृद्धि होगी, जिस कारण इसका देशव्यापी विरोध हो रहा है।
- वहीं, इसका दूसरा पक्ष यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के द्वारा निर्दोष लोगों की इस अधिनियम के तहत झूठे आरोपों से रक्षा हो सकेगी।
- हालाँकि, यह आवश्यक है कि विधिमान्य प्रक्रियाओं के आलोक में इस निर्णय की निष्पक्ष समीक्षा की जाए।
वाद विशेष का विश्लेषण
- इस वाद में फार्मेसी के एक सरकारी कॉलेज के स्टोरकीपर द्वारा दो जाँच अफसरों पर वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके “गलत मूल्यांकन” का आरोप लगाया गया है। साथ ही, स्वीकृति प्रदाता प्राधिकारी (नियोक्ता प्राधिकारी) द्वारा जाँच स्वीकृति न दिये जाने को इस अधिनियम के अतर्गत अत्याचार की संज्ञा दी गई।
- यदि स्वीकृति प्रदाता प्राधिकारी द्वारा स्वीकृति न देना गलत भी था तो भी इसे अत्याचार की संज्ञा नहीं दी जा सकती थी। इस तरह की घटनाओं से बचने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि FIR दर्ज करने से पूर्व एक विवेकपूर्ण समीक्षा आवश्यक है तथा FIR दर्ज के बावजूद, गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है।
- यदि अभियुक्त एक सरकारी सेवक है तो नियोक्ता अधिकारी द्वारा अनुमति ली जानी चाहिये। यदि वह सरकारी सेवक नहीं है तो एसएसपी द्वारा अनुमति ली जानी आवश्यक है।
निर्णय के कानूनी पहलू
- इस निर्णय में अभियुक्त को अग्रिम जमानत न प्रदान किये जाने के प्रावधान को निरस्त किया गया है। हालाँकि, यदि प्रथम दृष्टया ऐसा पाया जाता है कि इस अधिनियम के तहत अपराध किया गया है तो अग्रिम जमानत प्रदान न किये जाने का प्रावधान लागू होगा।
- सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, जिन मामलों में प्रथम दृष्टया पाया जाता है कि अपराध हुआ है तथा उसकी सुनवाई से पूर्व गिरफ़्तारी एवं न्यायिक जाँच आवश्यक है, उन मामलों में इस अधिनियम के प्रभाव को कम नहीं किया गया है।
- न्यायालय द्वारा SC/ST के खिलाफ किये गए अत्याचारों के लिये सज़ा को कम नहीं किया गया है।
- चूँकि निचले स्तर के पुलिस अफसरों का सरकारी या अन्य प्रकार के दबाव में आने की संभावना अधिक थी इसलिये न्यायालय द्वारा सामान्य नागरिकों के लिये SSP तथा सरकारी सेवकों के मामले में वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति को अनिवार्य बनाया गया है।
- गौरतलब है कि NCRB (नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो) के आँकड़ों के अनुसार, इस अधिनियम में दर्ज मामलों में से 15% झूठे होते हैं।
न्यायालय द्वारा जारी दिशा-निर्देश
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निहितार्थ
- जनता के दबाव में न आकर न्यायालय द्वारा एक अलोकप्रिय निर्णय लिया गया ताकि भीड़ के न्याय के फलसफे के स्थान पर संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को कायम रखा जा सके।
- ऐसा करके अदालत ने निर्दोष व्यक्तियों को किसी गलत गिरफ़्तारी से सुरक्षा प्रदान की है तथा इससे उनके खिलाफ झूठे मामलों की संख्या में भी कमी आएगी।
- अफसरों द्वारा जमा की गई जाँच रिपोर्ट को पीड़ित द्वारा साक्ष्य के रूप में उपयोग किया जा सकेगा जिससे उन्हें त्वरित न्याय मिलने में सुविधा होगी।
- इससे सरकारी सेवक बिना डर के अपने कर्त्तव्यों का निष्पादन कर सकेंगे।
- यह सतत् विकास लक्ष्य 2010 के लक्ष्य 16 की पुष्टि करता है जिसमें न्याय तथा शांति की पैरोकारी की गई है।