समान नागरिक संहिता (UCC) | 13 Feb 2020
प्रीलिम्स के लिये:समान नागरिक संहिता संबंधी प्रावधान मेन्स के लिये:समान नागरिक संहिता संबंधी विवाद और उसका आलोचनात्मक परीक्षण |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक गोवा निवासी की संपत्ति से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए गोवा को ‘समान नागरिक संहिता’ (Uniform Civil Code) लागू करने के संदर्भ में एक बेहतरीन उदाहरण के रूप में वर्णित किया है।
मुख्य बिंदु:
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान निर्माताओं ने भारत के लिये एक समान नागरिक संहिता की ‘आशा और अपेक्षा’ की थी, लेकिन इसे लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है।
समान नागरिक संहिता क्या है?
- समान नागरिक संहिता वह संहिता है जो पूरे देश के लिये एक समान कानून और सभी धार्मिक समुदायों के लिये विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि संबंधी कानूनों में भी एकरूपता प्रदान करने का प्रावधान करती है।
- संविधान के अनुच्छेद 44 में वर्णित है कि राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।
- अनुच्छेद 44 संविधान के भाग-4 में वर्णित राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (Directive Principles of State Policy-DPSP) में से एक है।
- अनुच्छेद 37 में परिभाषित है कि राज्य के नीति निदेशक तत्त्व संबंधी प्रावधानों को किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है लेकिन इसमें निहित सिद्धांत शासन व्यवस्था में मौलिक प्रकृति के होंगे।
- मौलिक अधिकार न्यायालय में प्रवर्तन के योग्य हैं।
- अनुच्छेद 44 में ‘राज्य प्रयास करेगा’ जैसे शब्दों का उपयोग किया गया है, परंतु इस अध्याय के अन्य अनुच्छेदों में ‘विशेष रूप से प्रयास में’, ‘विशेष रूप से अपनी नीति को निर्देशित करेगा’, ‘राज्य की बाध्यता होगी’ आदि शब्दों का उपयोग किया गया है।
- अनुच्छेद 43 में उल्लेख किया गया है कि ‘राज्य उपयुक्त कानून द्वारा प्रयास करेगा’ जबकि वाक्यांश ‘उपयुक्त कानून द्वारा’ अनुच्छेद 44 में अनुपस्थित है।
- इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी राज्य की DPSP को लागू करने की ज़िम्मेदारी अनुच्छेद 44 की तुलना में अन्य अनुच्छेदों के लिये अधिक है।
मूल अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्त्व:
- इसमें कोई संदेह नहीं है कि मौलिक अधिकार DPSP से अधिक महत्वपूर्ण हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय ने मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में वर्णित किया था कि भारतीय संविधान की स्थापना भाग-III (मौलिक अधिकार) और भाग-IV (DPSP) के बीच संतुलन के आधार पर की गई है। इनमें से किसी एक को दूसरे पर पूर्ण अधिकार देना संविधान के सामंजस्य को बिगाड़ना है
- अनुच्छेद 31(C) जिसे वर्ष 1976 के 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया है, इस बात की पुष्टि करता है कि यदि किसी भी निदेशक सिद्धांत को लागू करने के लिये कोई कानून बनाया जाता है, तो उसे अनुच्छेद 14 और 19 के तहत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है।
वर्तमान में समान नागरिक संहिता की स्थिति:
- वर्तमान में अधिकांश भारतीय कानून, कई सिविल मामलों में एक समान नागरिक संहिता का पालन करते हैं, जैसे- भारतीय अनुबंध अधिनियम, नागरिक प्रक्रिया संहिता, माल बिक्री अधिनियम, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, भागीदारी अधिनियम, साक्ष्य अधिनियम आदि।
- हालाँकि राज्यों ने कई कानूनों में सैकड़ों संशोधन किये हैं परंतु धर्मनिरपेक्षता संबंधी कानूनों में अभी भी विविधता है।
- यह तर्क दिया जाता है कि यदि संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता लागू करने की आशा की होती, तो उन्होंने इस विषय को संघ सूची में शामिल करके व्यक्तिगत कानूनों के संबंध में संसद को विशेष अधिकार दिया होता। जबकि इसे समवर्ती सूची में शामिल किया गया है।
- वर्ष 2019 में भी विधि आयोग ने कहा था कि एक समान नागरिक संहिता न तो संभव है और न ही वांछनीय है।
क्या सभी धार्मिक समुदायों के लिये अपने सभी सदस्यों को नियंत्रित करने वाला एक सामान्य व्यक्तिगत कानून है?
- देश के न तो सभी हिंदू, न सभी मुसलमान और न ही सभी ईसाई एक कानून द्वारा शासित हैं।
- भारत के अलग-अलग हिस्सों में न केवल ब्रिटिश कानूनी परंपराएँ, यहाँ तक कि पुर्तगाली और फ्राँसीसी भी कुछ हिस्सों में सक्रिय हैं।
- जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 तक स्थानीय हिंदू कानून केंद्रीय अधिनियमों से भिन्न थे।
- वर्ष 1937 के शरीयत अधिनियम को कुछ वर्ष पहले जम्मू-कश्मीर तक विस्तारित किया गया था लेकिन अब इसे निरस्त कर दिया गया है।
- इस प्रकार कश्मीर के मुसलमान एक प्रथागत कानून द्वारा शासित थे, परंतु देश के बाकी हिस्सों में मुस्लिम पर्सनल लॉ लागू था जो हिंदू कानून के करीब था।
- यहाँ तक कि मुसलमानों के बीच विवाह के पंजीकरण संबंधी कानून अलग-अलग स्थानों पर भिन्न होते हैं।
- पूर्वोत्तर में 200 से अधिक जनजातियाँ अपने स्वयं के विविध प्रथागत कानूनों को मानती हैं।
- संविधान नगालैंड, मेघालय और मिज़ोरम के स्थानीय रीति-रिवाजों की रक्षा का प्रावधान करता है।
समान नागरिक संहिता का धर्म संबंधी मौलिक अधिकारों से संबंध:
- अनुच्छेद 25 धर्म के संबंध में व्यक्ति के मौलिक अधिकार को समाप्त करता है; अनुच्छेद 26 (B) प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भी वर्ग के अधिकार को ‘धर्म के मामलों में प्रबंधन’ करने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 29 विशिष्ट संस्कृति के संरक्षण के अधिकार को परिभाषित करता है।
- अनुच्छेद 25 के तहत किसी व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता ‘सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य, नैतिकता’ और मौलिक अधिकारों से संबंधित अन्य प्रतिबंधों के अधीन है, लेकिन अनुच्छेद 26 के तहत एक धार्मिक समूह की स्वतंत्रता अन्य मौलिक अधिकारों के अधीन नहीं है।
- संविधान सभा में समान नागरिक संहिता संबंधी मौलिक अधिकार को इस अध्याय में रखने के मुद्दे पर विभाजन था। यह मामला एक वोट से तय हुआ।
- सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता में मौलिक अधिकार उप-समिति ने 5: 4 के बहुमत से माना कि यह प्रावधान मौलिक अधिकारों के दायरे से बाहर था, इसलिये समान नागरिक संहिता को धार्मिक स्वतंत्रता से कम महत्त्वपूर्ण बताया गया।
समान नागरिक संहिता पर संविधान सभा के मुस्लिम सदस्यों का विचार:
- मोहम्मद इस्माइल नामक सदस्य जिन्होंने तीन बार मुस्लिम पर्सनल लॉ को अनुच्छेद 44 से मुक्त करने का असफल प्रयास किया था, ने कहा कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को लोगों के व्यक्तिगत कानून में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
- बी पोकर साहब नामक अन्य एक सदस्य ने कहा कि उन्हें विभिन्न संगठनों से एक समान नागरिक संहिता के खिलाफ प्रतिनिधित्व मिला है, जिसमें हिंदू संगठन भी शामिल हैं।
- डॉ. भीमराव अंबेडकर ने कहा कि कोई भी सरकार अपने प्रावधानों का प्रयोग इस तरह से नहीं कर सकती है जो मुसलमानों को विद्रोह करने के लिये मजबूर करे।
- अल्लादी कृष्णस्वामी, जो एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में थे, ने माना कि किसी भी समुदाय के मज़बूत विरोध की अनदेखी करते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करना नासमझी होगी।
- इन बहसों में लैंगिक न्याय का उल्लेख नहीं किया गया था।
समान नागरिक संहिता पर संविधान सभा के हिंदू सदस्यों का विचार:
- जून 1948 में संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि व्यक्तिगत कानून में बुनियादी परिवर्तन प्रारंभ करना पूरे हिंदू धर्म पर ‘सूक्ष्म अल्पसंख्यक’ संबंधी ‘प्रगतिशील विचारों’ को लागू करना था।
- हिंदू कानून में सुधार के विरोध में शामिल लोगों में सरदार पटेल, पट्टाभि सीतारमैय्या, एम ए अयंगार, एम एम मालवीय और कैलाश नाथ काटजू शामिल थे।
- दिसंबर 1949 में जब हिंदू कोड बिल पर बहस शुरू हुई तो 28 में से 23 वक्ताओं ने इसका विरोध किया।
- 15 सितंबर, 1951 को राष्ट्रपति ने हिंदू कोड बिल को संसद में वापस करने या इसे वीटो करने की अपनी शक्तियों का उपयोग करने की धमकी दी।
- जवाहर लाल नेहरू ने संहिता को अलग-अलग अधिनियमों में विभाजित करने पर सहमति व्यक्त की थी।