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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

जलवायु लक्ष्य को प्रभावित करेगा ‘कार्बन उत्सर्जन अंतराल’

  • 03 Nov 2017
  • 9 min read

संदर्भ  

हाल ही में जारी की गई ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट’ (UN Environment Emissions Gap Report), 2017 में यह चेतावनी दी गई है कि वर्ष 2030 में ज़ाहिर की गई जलवायु संबंधी प्रतिबद्धताओं और वर्तमान प्रतिबद्धताओं के मध्य एक विशाल ‘कार्बन उत्सर्जन अंतराल’ (carbon emissions gap) मौजूद है और इसके लिये सभी देशों को मिलकर वैश्विक औसत तापमान में होने वाली वृद्धि को 2⁰C अथवा वर्ष 2100 तक 1.5⁰C से कम रखने का प्रयास करना है। 

प्रमुख बिंदु 

  • राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (Nationally Determined Contributions -NDCs) का बिना शर्त क्रियान्वयन  और तुलनात्मक कार्यवाही के परिणामस्वरूप पूर्व औद्योगिक स्तरों के सापेक्ष वर्ष 2100 तक तापमान में लगभग 3.2⁰C की वृद्धि होगी, जबकि यदि राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों का सशर्त कार्यान्वयन किया जाएगा तो इसमें कम से कम 0.2% की कमी आएगी।
  • जीवाश्म ईंधन और सीमेंट उत्पादन का ग्रीनहाउस गैसोंमें 70% योगदान होता है। 
  • रिपोर्ट में 2030 के लक्षित उत्सर्जन स्तर और 2⁰C और 1.5⁰C लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अपनाए जाने वाले मार्गों के बीच विस्तृत अंतराल है। वर्ष 2030 के लिये सशर्त और शर्त रहित एनडीसी के पूर्ण क्रियान्वयन हेतु तापमान में 2⁰C की बढ़ोतरी 11 से 13.5 गीगाटन कार्बन-डाइऑक्साइड के समान है। यदि अमेरिका 2020 में पेरिस समझौते को छोड़ देता है, तो यह स्थिति और अधिक भयावह हो सकती है।
  • सौर और पवन ऊर्जा, कुशल उपकरणों, यात्री कारों, वनोन्मूलन और वनों की कटाई पर रोक में विद्यमान उत्सर्जन अंतराल को समाप्त करने के लिये अत्यधिक क्षमता की आवश्यकता होगी। इन छह कारकों में  प्रतिवर्ष 22 गीगाटन कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जन को समाप्त करने की क्षमता है। मॉट्रियल प्रोटोकॉल में किगली संशोधन के माध्यम से हाइड्रोफ्लूरोकार्बन जैसी ग्रीनहाउस गैसों को तथा अल्पावधिक जलवायु प्रदूषकों जैसे ब्लैक कार्बन को कम करने के लिये कदम उठाये जा सकते हैं। 
  • समझौते के प्रभाव में आने के बाद भी वर्ष 2014 से कार्बन-डाइऑक्साइड का उत्सर्जन स्थिर बना हुआ है। भारत और चीन में इसका उत्सर्जन नवीकरणीय ऊर्जा द्वारा किया जाता है।
  • कार्बन उत्सर्जन में वृद्धि हुई है, परन्तु रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि मीथेन जैसी अन्य ग्रीनहाउस गैसों में भी वृद्धि हो रही है।

 पेरिस जलवायु समझौता 

  • इस समझौते में यह लक्ष्य तय किया गया था कि इस शताब्दी के अंत तक वैश्विक तापमान को 2⁰C के नीचे रखने की हर संभव कोशिश की जाएगी। इसका कारण यह बताया गया था कि वैश्विक तापमान 2⁰C से अधिक होने पर समुद्र का स्तर बढ़ने लगेगा, मौसम में बदलाव देखने को मिलेगा और जल व भोजन का अभाव भी हो सकता है। 
  • इसके अंतर्गत उत्सर्जन में 2⁰C की कमी लाने का लक्ष्य तय करके जल्द ही इसे प्राप्त करने की प्रतिबद्धता तो ज़ाहिर की गई थी परन्तु इसका मार्ग तय नहीं किया गया था। 
  • तात्पर्य यह है देश इस बात से अवगत ही नहीं हैं कि इस लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में उन्हें क्या करना होगा। दरअसल सभी देशों में कार्बन उत्सर्जन स्तर अलग-अलग होता है, अतः सभी को अपने देश में होने वाले उत्सर्जन के आधार पर ही  उसमें कटौती करनी होगी। 

क्या है सीओपी-21?

  • जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के ढाँचे यानी यूएनएफसीसीसी (UNFCCC) में शामिल सदस्यों का सम्मेलन कॉन्‍फ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) कहलाता है। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को स्थिर करने और पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचाने के लिये वर्ष 1994 में इसका गठन किया गया था। 
  • वर्ष 1995 से सीओपी की बैठक प्रतिवर्ष होती है। साल 2015 में इसके सदस्‍य देशों की संख्या 197 थी। दिसंबर 2015 में सम्‍मेलन के दौरान ही पेरिस जलवायु समझौता प्रभाव में आया। 

18 पन्नों का एक दस्‍तावेज़ है पेरिस समझौता 

  • यह 18 पन्नों का एक दस्‍तावेज है जिस पर अक्टूबर, 2016 तक 191 सदस्य देशों ने हस्‍ताक्षर कर लिये थे। पेरिस समझौते पर शुरुआत में ही 177 सदस्यों ने हस्ताक्षर कर दिये थे। ऐसा पहली बार हुआ है जब किसी अंतर्राष्ट्रीय समझौते के पहले ही दिन इतनी बड़ी संख्या में सदस्यों ने सहमति व्यक्त की।  

समझौते के प्रति अमेरिका का नज़रिया 

  • अमेरिका ने 2015 में हुए जलवायु परिवर्तन समझौते से खुद को अलग करने की औपचारिक घोषणा कर दी है। इस दौरान डोनाल्ड ट्रंप का कहना था कि पूर्ववर्ती ओबामा प्रशासन के दौरान 190 देशों के साथ किये गए इस समझौते पर फिर से वार्ता करने की जरूरत है।
  • चीन और भारत जैसे देशों को पेरिस समझौते से सर्वाधिक लाभ होने का दावा करते हुए राष्ट्रपति ट्रंप का कहना था कि जलवायु परिवर्तन पर समझौता अमेरिका के लिये अनुचित है, क्योंकि इससे उसके उद्योगों और रोज़गार पर बुरा असर पड़ रहा है।
  • अमेरिका विश्व का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। इस समझौते से अमेरिका के अलग होने पर विश्व में जलवायु परिवर्तन कम करने के प्रयासों के समक्ष चुनौतियाँ खड़ी हो जाएंगी। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, अमेरिका गरीब देशों को फंडिंग भी कर रहा था, तो अब इस फंडिंग में भी संशय की स्थिति बनी रहेगी। 

भारत का पक्ष  

  • भारत विश्व के 4.1 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन के लिये ज़िम्मेदार है। यह आँकड़े अपने आप में बेहद चिंताजनक हैं। 
  • भारत ने दो अक्तूबर को पेरिस जलवायु समझौते का अनुमोदन किया था। इसके साथ ही वह जलवायु परिवर्तन पर अनुमोदन संबंधी अपना दस्तावेज़ जमा कराने वाला 62वां देश बन गया है।  इस सम्‍मेलन के दौरान भारत सहित आस्ट्रिया, बोलविया, कनाडा, फ्राँस, जर्मनी, हंगरी, माल्टा, नेपाल, पुर्तगाल और स्लोवाकिया के साथ-साथ यूरोपीय संघ ने भी इसकी पुष्टि कर दी है।
  • ऊर्जा के लिये कोयले के उपयोग को लेकर भारत पर सवाल खड़े करने वाले विकसित देश भी इसका लगातार उपयोग कर रहे हैं। अतः भारत पर सवाल उठाना तार्किक दृष्टि से उचित नहीं है। 
  • भारत का मानना है कि पेरिस सम्‍मेलन में हुए समझौते के बाद यह ज़रूरी हो गया है कि जलवायु परिवर्तन संबंधी समस्या का समाधान करने के लिये बजट का आवंटन भी सही पैमाने पर किया जाए। इसके अलावा इसमें विकासशील देशों की चिंताओं का भी ध्‍यान रखना चाहिये ताकि वह विकास की गति में अग्रसर हो सकें।
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