अंतर्राष्ट्रीय संबंध
तीन तलाक - उच्चतम न्यायालय की संविधानिक पीठ के मापदंड
- 12 May 2017
- 4 min read
संदर्भ
भारत में तीन तलाक, निकाह हलाला आदि को लेकर लंबे समय से वाद–विवाद चल रहा है| इसी सिलसिले में भारत की सर्वोच्च अदालत ने स्वतः संज्ञान लेते हुए संसद और सरकार को इनसे संबंधित नियम बनाने के लिये कई बार आगाह भी किया है|
प्रमुख बिंदु
- इस बार उच्चतम न्यायालय तीन तलाक , निकाह हलाला आदि को संविधान के मापदंडों पर तय करने के लिये सुनवाई कर रहा है| इसकी सुनवाई के लिये 5 सदस्यों की संवैधानिक पीठ गठित की गई है|
- भारतीय संविधान के अनुसार, संविधान के किसी पहलू की समीक्षा करने के लिये न्यूनतम 5 न्यायाधीशों की पीठ होनी चाहिये| भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार सभी धर्मों को अपने हिसाब से धार्मिक मुद्दों पर अमल करने का हक है|
- इस संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर ने स्पष्ट किया कि हम केवल इस मुद्दे की सुनवाई करेंगे कि तीन तलाक जैसी प्रथा इस्लाम धर्म के मूल में है या नहीं| हालाँकि, अन्य याचिकाकर्तायों ने बहु-पत्नी प्रथा पर भी विचार करने का अनुरोध किया, जिसे माननीय न्यायालय ने ठुकरा दिया|
- एडीशनल सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार का पक्ष रखते हुए दलील दी कि केंद्र सरकार तीन तलाक सहित बहु-पत्नी आदि प्रथाओं के खिलाफ है|
- एक याचिकाकर्ता अमित सिंह चड्ढा ने दलील दी कि मुसलमान पति द्वारा एक बार में तीन बार तलाक कहना न सिर्फ अतार्किक है बल्कि एकतरफा भी है | दरअसल, यह दलील शायरा बानो मामले में, शायरा बानो की तरफ से दी गई| उन्होंने यह भी कहा कि 21वीं सदी में विभिन्न संचार माध्यमों जैसे मोबाइल फोन , इन्टरनेट, व्हाटस एप आदि के माध्यम से भी तलाक दिया जा रहा है| ऐसे में, यदि पति ने ऐसा कृत्य किसी नशे आदि के प्रभाव में किया हो और बाद में इसे वापस लेना चाहे, तब भी निकाह हलाला जैसी प्रथाएँ किसी भी सभ्य समाज की पहचान नहीं बन सकतीं|
- कई इस्लामिक देशों में ये प्रथाएँ गैर–कानूनी घोषित की जा चुकी हैं |
- हालाँकि, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से यह दलील दी गई कि जिन देशों में यह गैर-कानूनी है, वहाँ विधायिका ने ही इन मुद्दों पर नियम बनाए हैं न कि अदालतों ने|
- 1951 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि पर्सनल लॉ विधि के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है|
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय सिर्फ यह निर्धारित करेगा कि तीन तलाक जैसी प्रथाएँ मुस्लिम धर्म का हिस्सा हैं या नहीं? यदि उच्चतम न्यायालय इन प्रथाओं को इस्लाम धर्म का हिस्सा घोषित करता है , तभी इन्हें संविधान में वर्णित मूल अधिकारों का लाभ मिल सकेगा, अन्यथा नहीं|