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ईशनिंदा कानूनों में परिवर्तन का समय

  • 24 Apr 2017
  • 4 min read

समाचारों में क्यों
हाल ही में न्यायालय ने क्रिकेटर महेंद्र सिंह धोनी के मामले में हस्तक्षेप किया है| महेंद्र सिंह धोनी हिंदू धर्म के अपमान से जुड़े एक आपराधिक मुक़दमे का सामना कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें एक कारोबारी पत्रिका के कवर पेज पर हिंदू देवता के समान दिखाया गया था|

इस सिलसिले में न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 295 अ के तहत आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में उनके खिलाफ दर्ज आपराधिक शिकायत को रद्द कर दिया है| इस धारा के तहत किसी वर्ग अथवा समूह की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से किये गए कृत्य ही दंडनीय अपराध हैं|

न्यायालय का मानना है कि क्रिकेटर या पत्रिका का लोगों की भावना को ठेस पहुँचाने का कोई इरादा नहीं था| वर्ष 1957 में एक संवैधानिक पीठ द्वारा धारा 295 की यह व्याख्या दी गई थी कि न्यायालय किसी धर्म का अपमान करने के लिये किसी व्यक्ति को तभी दंड दे सकता है जब उसका इरादा किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को  ठेस पहुँचाने का हो|

क्या है धारा 295 (अ) 153 (अ)?
विदित हो कि इस प्रकार के मामलों में न्यायालय समय-समय पर हस्तक्षेप करता रहा है लेकिन धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के नाम पर कोई भी व्यक्ति लेखकों, प्रतिष्ठित लोगों और कलाकारों को न्यायालयों के समक्ष लाकर खड़ा कर देता है| न्यायिक राहत तो अंत में मिलती है परन्तु कड़वा सच यह है कि यह प्रक्रिया ही खामियों से युक्त है| 

धारा 295 अ एक ईश निंदा से संबंधित कानून है| यह सभी धर्मों अथवा धार्मिक निंदा के सभी प्रकारों पर लागू होता है| इस प्रावधान का एक अन्य रूप भारतीय दंड संहिता की धारा 153 अ है| यह धारा उन लोगों के खिलाफ लगाई जाती है जो धर्म, नस्ल, जन्म-स्थान, निवास और भाषा के आधार पर  विभिन्न समूहों के मध्य वैमनस्य को बढ़ावा देते हैं और सद्भाव को बनाए रखने के प्रतिकूल कार्य करते हैं| 

क्यों है विवाद?
ईश निंदा कानूनों के साथ समस्या यह है कि चाहे वे किसी भी स्वरूप के हों परन्तु वे अन्तर्निहित व्यक्तिपरक हैं| इसका कोई अनुमान नहीं है कि लोगों को निंदा,अपराध अथवा ठेस किस कारण से पहुँचती है| इन कानूनों में अस्पष्टता के कारण ही इनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया जाता रहा है|

निष्कर्ष

भारतीय दंड संहिता की इन दोनों ही धाराओं का दुरुपयोग लम्बे समय से होता आ रहा है अतः न्यायालय को चाहिये कि वह इन धाराओं का परिक्षण करे और आवश्यक बदलावों के माध्यम से इन्हें व्यवहारिक बनाए। आखिरकार कानूनों को तलवार नहीं बल्कि ढाल के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिये।

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