नीति-निर्माण में रूढ़िवादिता की आवश्यकता | 30 May 2018
संदर्भ
उभरते बाजारों के लिये अप्रैल के बाद का समय काफी मुश्किलों भरा रहा है। अमेरिकी फेड दरों का उच्च स्तर, मजबूत होते डॉलर और बढ़ती तेल कीमतों ने मिलकर उभरते बाजारों में हलचल मचा रखी है। पोर्टफोलियो बहिर्प्रवाहों के कारण मुद्राएँ कमज़ोर हुई हैं।
प्रमुख बिंदु
- राजकोषीय घाटा और चालू खाता घाटा वाले देशों को और अधिक नुकसान उठाना पड़ा है।
- उदाहरणस्वरूप, अर्जेंटीना इस संकट से इस कदर पीड़ित है कि उसने सहायता हेतु अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से संपर्क किया है।
- तुर्की भी दोहरे घाटे की समस्या से परेशान है। वहाँ निवेशकों का केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता पर भरोसा टूटा है, क्योंकि पिछले हफ्ते इसने दरों में 300 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर दी।
- इंडोनेशिया के केंद्रीय बैंक ने भी मई के मध्य में वित्तीय स्थिरता प्राप्त करने के उद्देश्य से दरों में बढ़ोतरी कर दी और आगे भी यह दरों में 25 आधार अंकों की वृद्धि की योजना बना रहा है।
- भारत भी इससे अछूता नहीं है। अपने दोहरे घाटे और तेल पर निर्भरता के कारण भारतीय रुपया वर्ष 2018 में अब तक सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली एशियाई करेंसी है।
- आगामी चुनावों के कारण राजनीतिक प्राथमिकताओं के चलते आशंका जताई जा रही है कि 2018-19 में देश की राजकोषीय स्थिति और खराब हो सकती है।
- आईएमएफ की ‘वैश्विक वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट’ (Global Financial Stability Report) में अनुमान लगाया गया है कि यदि अमेरिकी बैलेंस शीट सामान्यीकरण के साथ ही फेड दरों में तेजी आ जाए तो उभरते बाजारों में पोर्टफोलियो अंतर्प्रवाहों में 2018-19 में औसतन $60 बिलियन डॉलर की कमी आ सकती है।
- वैश्विक वित्तीय परिस्थितियों के सख्त होने के परिणामस्वरूप भुगतान संतुलन संबंधी खतरा बढ़ सकता है और उभरते बाजारों में क्रेडिट जोखिम में बढ़ोतरी हो सकती है।
- हालाँकि, लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण और सकारात्मक वास्तविक दर व्यवस्था के कारण भारत 2014 से ही सुधार के रास्ते पर चल रहा है। विवेकपूर्ण मुद्रा नीतियों और राजकोषीय नीतियों के कारण भारत के समष्टि स्तरीय आधारभूत तत्त्वों में 2013 के मुकाबले काफी सुधार आ चुका है।
- लेकिन वैश्विक पृष्ठभूमि को देखते हुए भारत को आने वाले समय हेतु समुचित बहुआयामी रणनीतियों के साथ तैयार रहना होगा, ताकि किसी भी संभावित खतरे से समय रहते निपटा जा सके।
- वित्तीय संतुलन भारत की कमजोर कड़ी है एवं जीडीपी के 3% तक राजकोषीय घाटे के लक्ष्य का कई बार अतिक्रमण हो चुका है। हाँ, चुनाव-पूर्व के वर्ष में राजनीतिक प्राथमिकताएँ अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन निवेशकों के बीच में यह विश्वास भी पैदा करना होगा कि राजकोषीय घाटे के लक्ष्यों का सख्ती से पालन किया जाएगा।
- मुद्रास्फीति की विश्वसनीयता को मजबूत करने के लिये समुचित मौद्रिक नीति तैयार रहनी चाहिये, क्योंकि अध्ययनों से पता चला है कि उच्च मुद्रास्फीति वाले देश पूंजी के बहिर्प्रवाह के लिये अधिक संवेदनशील हैं।
- यह सच है कि भारत के पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार है, जिसका उपयोग अस्थिरता की स्थिति में बचाव हेतु किया जा सकता है। लेकिन एक विशेष स्तर पर मुद्रा का बचाव करना मूर्खतापूर्ण कदम साबित हो सकता है।
- विदेशी मुद्रा भंडार में निरंतर गिरावट से निवेशकों का विश्वास हिल सकता है, जिससे पूंजी के बहिर्प्रवाह में और तेजी आ सकती है।
- आगामी चुनावों को देखते हुए निवेशकों को सुधारों की उम्मीद न के बराबर है, लेकिन नीति-निर्माता बैंकिंग सुधारों से निवेशकों को चकित कर सकते हैं। साथ ही, सब्सिडी सुधार, बाजार उधार में कमी जैसे कदमों से जोखिमों को कम किया जा सकता है।
- कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि रूढ़िवादी मार्ग से वृद्धि धीमी गति से होगी, लेकिन यह केवल अल्पावधि के लिये है; मध्यम अवधि में वृद्धि अधिक स्थिर होगी।