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जैव विविधता और पर्यावरण

पर्यावरण संरक्षण: विभिन्न आयाम

  • 31 Aug 2019
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में IPCC ने ‘जलवायु परिवर्तन (Climate Change), मरुस्थलीकरण (Desertification), भूमि अपक्षयण (Land Degradation), सतत् भूमि प्रबंधन (Sustainable Land Management), खाद्य सुरक्षा (Food Security) तथा स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र (Terrestrial Ecosystems) में ग्रीनहाउस गैस का प्रवाह’ पर एक नवीनतम रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि भू-सतह पर वायु का तापमान बढ़कर लगभग दोगुना (1.3 डिग्री सेल्शियस) हो गया है।

पृष्ठभूमि

ग्लोबल वार्मिंग- 1.5°C पर IPCC की विशेष रिपोर्ट, 2018 में कहा गया है कि मानव गतिविधियों के कारण पूर्व-औद्योगिक समय से अभी तक वैश्विक औसत तापमान में लगभग 0.87°C की वृद्धि हुई है।

प्रभाव

  • विश्व की भूमि प्रणालियों का मानव कल्याण, आजीविका, खाद्य सुरक्षा और जल सुरक्षा पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
  • कृषि उपयोग हेतु भूमि के अधिकाधिक उपयोग से मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो रही है, यह फसल की पैदावार में कमी जैसे पहले से ही गंभीर खतरों को और बढ़ावा दे गा।

आवश्यक कदम

  1. रिपोर्ट में प्रस्तावित कई सुधारात्मक उपायों जैसे कि कम जुताई, भूमि संरक्षण वाली फसलें लगाना, चराई प्रबंधन में सुधार तथा कृषि वानिकी का अधिक-से-अधिक उपयोग आदि उपायों को लागू करने की आवश्यकता है।
  2. वनों को बनाए रखना और बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वन प्राकृतिक रूप से निर्मित कार्बन सिंक होते हैं।

भारत के संदर्भ में चुनौतियाँ

  1. भारत में पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment- EIA) का कमज़ोर होना चिंता का विषय है।
  2. भारतीय कृषि क्षेत्र में देश के लगभग 86% से अधिक जल का उपयोग होता है। भारतीय धान की पैदावार में लगने वाला जल विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक है।
  3. ICIMOD (International Centre for Integrated Mountain Development) की 2019 में प्रकाशित HIMAP रिपोर्ट से प्राप्त जानकारी के अनुसार ग्लेशियरों की कमी के चलते उत्पन्न होने वाली खाद्य सुरक्षा के संकट को दूर करने के लिये लघु और दीर्घावधि में जल का बेहतर प्रबंधन किये जाने की आवश्यकता है।
  4. खाद्य क्षेत्र में उपभोग और अपशिष्ट प्रबंधन भी जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक है।

आगे की राह

  • औद्योगिक विकास और पर्यावरण संरक्षण के लिये विवेकपूर्ण रूप से योजना बनाई जा सकती है।
  • वन पारिस्थितिकी तंत्र के प्रतिस्थापन के बिना औद्योगिकीकरण हेतु भूमि का मितव्ययी तरीके से उपयोग तथा उपयुक्त ज़ोनिंग द्वारा पर्यावरण सुरक्षा के उपाय संभव हैं।
  • वैश्विक मूल्यांकन रिपोर्टों से पता चला है कि प्रकृति के अत्यंत समीप रहने वाले आदिवासी लोगों से परामर्श करना, स्थानीय ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान के साथ एकीकृत करने का एक महत्त्वपूर्ण तरीका है।
  • जल प्रबंधन की स्थिति भी संकटमय है। इस कार्य के लिये केंद्र सरकार ने “सिंचाई जल उत्पादकता” का लक्ष्य रखा है। कुछ अन्य समाधान इस प्रकार हैं-
    • ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी सुसंगत सिंचाई प्रथाओं को बढ़ावा देना।
    • जल-गहन नकदी फसलों की पैदावार को कम करना।
    • धान की खेती में सिंचाई और उसे सुखाने (AWR) हेतु वैकल्पिक पद्धतियाँ अपनाना।
    • किसानों को जल के कुशल उपयोग हेतु तकनीकों और पद्धतियों के प्रति संवेदनशील बनाना।
    • जल-कुशल कृषि पद्धतियों का उपयोग करना।
    • कम वर्षा वाले क्षेत्रों में टैंकों और कृत्रिम तालाबों के निर्माण, जैसी पारंपरिक वर्षा जल संचयन पद्धतियों को अपनाना।
    • IPCC रिपोर्ट में अधिक वनस्पति-आधारित आहार की ओर रुख को एक स्वस्थ स्थायी आहार विकल्प माना गया है।
  • संयुक्त राष्ट्र (UN) का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक विश्व की आबादी 9.7 बिलियन हो सकती है, इसलिये भूमि और पानी की प्रति यूनिट उपलब्धता के लिये खाद्य आपूर्ति को बढ़ाने की आवश्यकता है। भारत में मौजूद अत्यधिक गरीब आबादी के कारण यह बदलाव भारत के लिये और भी महत्त्वपूर्ण है।

खाद्य प्रणाली में विविधता, संतुलित आहार एवं मांसाहारी आहार में कमी से सभी को स्वास्थ्य लाभ, अनुकूलन तथा शमन को सतत् विकास हेतु लाभदायक माना जाता है। अन्य लाभों के लिये फसल प्रबंधन के साथ पशुधन क्षेत्र का प्रबंधन भी आवश्यक है। मांस की खपत के प्रबंधन हेतु लोगों को शिक्षित करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। बाज़ार को मानव स्वास्थ्य लाभ के साथ संरेखित कर उसे प्रोत्साहन देने की आवश्यकता है। कार्बन-गहन विकास पथ से बचने के लिये तथा सतत् विकास को आगे बढाने हेतु भारत के कई अन्य विकल्प तथा सांस्कृतिक फायदे उपलब्ध हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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