अंतर्राष्ट्रीय संबंध
क्वांटिटेटिव इजिंग का अर्थ एवं महत्त्व
- 28 Sep 2017
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चर्चा में क्यों?
हाल ही में यू. एस. फेडरल रिज़र्व बैंक द्वारा यह घोषणा की गई कि वह अक्तूबर की शुरुआत से धीरे-धीरे क्वांटिटेटिव इजिंग (Quantitative Easing - QE) के नौ साल के कार्यक्रम को वापस लेना आरंभ कर देगा। इस कार्यक्रम के तहत केंद्रीय बैंक द्वारा बॉण्ड एवं दूसरे अन्य ऋण साधनों को खरीदने का काम किया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2008 के बाद से खुले बाज़ार से बंधक – समर्थित प्रतिभूतियों को (Mortgage-Backed Securities) खरीदना।
क्वांटिटेटिव इजिंग (Quantitative Easing) क्या है?
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फेडरल रिज़र्व बैंक द्वारा इन प्रतिभूतियों को खरीदने के लिये नए डॉलरों का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार यह प्रक्रिया अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अधिक से अधिक डॉलरों को संचालित करने में सहायता प्रदान करती है।
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QE को इस उम्मीद के साथ आरंभ किया गया था कि मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धि करने से अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी।
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वर्तमान में फेडरल रिज़र्व बैंक की बैलेंस शीट 4.5 खरब डॉलर की है
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यूरोपीयन सेंट्रल बैंक (European Central Bank) जैसे अन्य केंद्रीय बैंकों द्वारा भी अपनी अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के लिये समान बॉण्ड खरीद कार्यक्रमों को अपनाया गया है।
इसे वापस लिये जाने का क्या कारण है?
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अमेरिकी केंद्रीय बैंक ने 2007-08 के वित्तीय संकट के तत्काल बाद अपनी गिरती अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिये QE का सहारा लिया।
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इसका एक कारण यह था कि इसके पास QE के सिवाय किसी अन्य माध्यम से अल्पकालिक ब्याज दरों के रूप में पैसा लगाने का कोई अन्य विकल्प मौजूद नहीं था।
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परंतु, इसे वापस लिये जाने की वज़ह यह है कि अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था काफी हद तक संभल चुकी है और साथ ही फेडरल बैंक भी इसकी स्थिति को लेकर काफी आश्वस्त हो गया है। ध्यातव्य है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में वर्ष 2015 के बाद से तेज़ी देखी गई है।
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चूँकि अमेरिकी केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति और विकास के संबंध में प्रबंधनीय स्तरों पर कार्य कर रहा है, ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि फेडरल बैंक द्वारा QE को वापस लेने का निर्णय लिया गया है।
यह विश्व अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करेगा?
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उल्लेखनीय है कि बॉण्ड के संबंध में फेडरल रिज़र्व बैंक की मांग में कमी आने से, वर्तमान में ऐतिहासिक रूप से निम्न दरों पर उपलब्ध अमेरिकी बॉण्ड की ब्याज़ दरों में उछाल आने की संभावना है।
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इससे इस संबंध में निवेशकों का आकर्षण बढ़ेगा तथा भविष्य में अधिक लाभ की उम्मीद में निवेशकों द्वारा बॉण्ड की खरीद में वृद्धि होने की भी संभावना है।
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स्पष्ट है कि इस समय अमेरिकी बॉण्ड में निवेश करने के लिये निवेशकों द्वारा कम रिटर्न में अपने दूसरे निवेशों को बेचने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है, जिससे वित्तीय बाज़ारों में कुछ अशांति की स्थिति पैदा हो सकती है। हालाँकि, इसका प्रभाव अल्पकालिक ही होगा।
भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव होगा?
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फेडरल बैंक के इस निर्णय से भारतीय शेयर बाज़ार में विदेशी पूंजी का स्थिर उत्प्रवाह देखने को मिला है। इसका कारण यह है कि विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा अपनी हिस्सेदारी को कहीं दूसरी जगह निवेश करने के लिये बेचा जा रहा है।
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इसके अतिरिक्त रुपए की कीमत में भी गिरावट आई है क्योंकि निवेशकों द्वारा भारत से पूंजी का निष्कासन किया जा रहा है।
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विभिन्न निवेशों के संबंध में ज़ोखिम समायोजित रिटर्न के बराबर होने तक इसके जारी रहने की संभावना है।
लेकिन इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जैसे ही फेडरल बैंक द्वारा अपनी बैलेंस शीट को पूरा किया जाएगा, वैसे ही QE के कारण वित्तीय बाज़ारों तथा व्यापक अर्थव्यवस्था में आई वक्रता के भी उजागर होने की संभावना है। स्पष्ट रूप से इसके लिये आने वाले कुछ महीनों में नीति निर्माताओं को बहुत अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है।