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सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की ध्यान से देखभाल करने की आवश्यकता

  • 13 Jun 2018
  • 7 min read

संदर्भ

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर वाई.वी. रेड्डी ने पिछले हफ्ते एक भाषण में कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) की कार्य प्रणाली में लोगों का विश्वास निचले स्तर पर पहुँच गया है। इसका कारण समझना बहुत मुश्किल नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक बैड लोन के उच्च स्तर से जूझ रहे हैं। इनमें से कई को आरबीआई की तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई के तहत रखा गया है और वे उधार देने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में सरकार को इन बैंकों की स्थिति में सुधार लाने हेतु तत्काल कुछ कदम उठाने होंगे।

प्रमुख बिंदु

  • मार्च तिमाही में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा ₹62,000 करोड़ से अधिक की हानि दर्ज की गई एवं इनकी सकल गैर-निष्पादित संपत्ति (non-performing assets) लगभग ₹9 ट्रिलियन थी।
  • हालाँकि, सरकार इन बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की प्रक्रिया में है। लेकिन, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण संबंधी ₹2.11 ट्रिलियन के प्लान से इन बैंकों को पुनः पटरी पर लाया जा सकेगा, इसकी संभावना बेहद कम है।  
  • चूँकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक कुल बैंकिंग परिसंपत्तियों का लगभग 70 प्रतिशत स्वामित्व अपने पास रखते हैं, अतः इनके ऋण प्रदान करने में असमर्थता का आर्थिक विकास पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा।
  • अतः यह बेहद महत्त्वपूर्ण है कि इनकी स्थिति की ध्यान से देखभाल की जाए। इस संदर्भ में, कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं, जिन पर इस चरण में ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • प्रथम, हाल ही में ब्लूमबर्ग द्वारा दी गई रिपोर्ट में बताया गया है, 21 पीएसयू बैंकों में से चार ने मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) के लिये प्रतिस्थापन नियुक्त नहीं किया है और आने वाले महीनों में नौ और बैंकों के शीर्ष अधिकारियों द्वारा पद छोड़ने की आशंका है।
  • इस स्थिति को देखते हुए यह संभव है कि नए सीईओ की समय पर नियुक्ति न हो पाए। यह स्थिति निश्चित तौर पर वांछनीय नहीं है, खासतौर पर उस समय जब बैंक दबाव की स्थिति में हैं और त्वरित निर्णयन की विशेष आवश्यकता है।
  • बैकों के शीर्ष पर निर्विघ्न संक्रमण हेतु एक बेहतर प्लान होना बेहद आवश्यक है। हालाँकि, इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि सरकार को शीर्ष नेतृत्व के लिये कुशल प्रतिभा को आकर्षित करना मुश्किल होगा, क्योंकि अधिकांश बैंकरों में जाँच एजेंसियों का डर बैठा हुआ है। 
  • बहुत से कार्यरत और पूर्व वरिष्ठ अधिकारी जाँच के दायरे में हैं। ऐसे में सरकार को अनिवार्य रूप से यह सुनिश्चित करना होगा कि इन जाँच प्रक्रियाओं से डर का माहौल पैदा न हो। 
  • द्वितीय, सरकार अब बैड लोन के तेजी से समाधान के लिये एक परिसंपत्ति पुनर्निर्माण कंपनी (asset reconstruction company) के गठन पर विचार कर रही है और इस संबंध में सिफारिशें प्रदान करने के लिये एक समिति भी गठित की गई है। इस समिति द्वारा अगले दो सप्ताह में अपनी सिफारिशें देने की उम्मीद है।  
  • समिति क्या सुझाव देती है, यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा। लेकिन इस विचार के बहुत प्रभावी साबित  होने की संभावना कम है।
  • मूल समस्या तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के मूल्यांकन की होगी।  उदाहरणस्वरूप, यदि इन परिसंपत्तियों को पार मूल्य पर स्थानांतरित कर दिया जाता है और रिजोल्यूशन को सरकारी स्वामित्त्व वाली एआरसी के जिम्मे छोड़ दिया जाता है, तो इससे और अधिक जटिलताएँ पैदा हो सकती हैं।   
  • साथ ही एआरसी को बड़ी पूंजी की आवश्यकता होगी, जिसे सरकार उपलब्ध करवाने की स्थिति में नहीं है।
  • वास्तव में दिवालिया संहिता के बाद भारत को ऐसी एआरसी के गठन की कोई आवश्यकता नहीं है। बैंकों को वर्तमान ढाँचे के माध्यम से ही बैड लोन की समस्या का निपटान करने में सक्षम होना चाहिये।
  • तृतीय, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को पूंजीगत आवश्यकताओं और तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के शीघ्र समाधान के अलावा गवर्नेंस संबंधी सुधारों की भी आवश्यकता है। यह ऐसा पहलू है, जिस पर अब  तक बहुत कम ध्यान दिया गया है। 
  • सरकार को बैंकों के गवर्नेंस हेतु एक नए ढाँचे की स्थापना करनी होगी, जिसमें उच्च स्तर पर समयोचित नियुक्तियाँ किये जाने की व्यवस्था हो और बैंकों का शीर्ष नेतृत्व पेशेवर और उत्तरदायी हो। 
  • समग्र रूप से बात करें, तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के भविष्य के संदर्भ में स्पष्टता होनी चाहिये। 
  • वास्तव में कुछ बैंकिंग सुधार तभी प्रभावी हो पाएंगे, जब एक स्पष्ट रोडमैप परिभाषित किया जाए।
  • बैंकों को उनके मज़बूती वाले विशिष्ट क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति दी जानी चाहिये, ताकि वे समय के साथ अधिक कुशल हो जाएँ और विकास के लिये बजटीय समर्थन पर निर्भर न रहें।
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