भारतीय वन अधिनियम, 1927 में संशोधन : प्रावधान और प्रभाव | 12 Jan 2018
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संसद ने भारतीय वन अधिनियम, 1927 में संशोधन करते हुए गैर- वन क्षेत्रों में उगाए जाने वाले बाँस को वृक्ष की परिभाषा के दायरे से बाहर कर दिया है। परिणामस्वरूप गैर-वन क्षेत्रों में बाँस की कटाई और परिवहन के लिये अब किसी भी परमिट की आवश्यकता नहीं होगी।
पृष्ठभूमि
भारतीय वन अधिनियम, 1927 के खंड 2(7) में ताड़, बाँस, ठूंठ(Stumps), ब्रशवुड और बेंत को पेड़ की श्रेणी में रखा गया था। इसमें संशोधन के लिये नवंबर 2017 में अध्यादेश ज़ारी किया गया था। इस अध्यादेश का स्थान लेने के लिये दिसंबर 2017 में सरकार द्वारा लोकसभा में भारतीय वन (संशोधन) अधिनियम, 2017 पेश किया गया और पारित कर दिया गया था। 26 दिसंबर, 2017 को इसे राज्यसभा द्वारा भी पारित कर दिया गया।
प्रमुख बिंदु
- यह अधिनियम बाँस के पेड़ों को काटने या इसकी ढुलाई के लिये अनुमति हासिल करने से छूट देने में मदद करेगा। अधिनियम की धारा 2 की उपधारा 7 से बाँस शब्द को हटा दिया गया है।
- इस संशोधन के पारित होने के बाद बाँस की नि:शुल्क आवा-जाही की अनुमति होगी जिससे कच्चे माल की मांग उत्पन्न होगी।
- इससे गैर-वन भूमि पर बाँस के वृक्षारोपण और रोज़गार को बढ़ावा मिलेगा तथा गाँवों और छोटे शहरों में लघु और मध्यम उद्योगों के विकास को प्रोत्साहित किया जा सकेगा और आयात पर निर्भरता कम होगी।
- हालाँकि वन क्षेत्र में उगाए गए बाँस को वन संरक्षण अधिनियम,1980 के प्रावधानों द्वारा प्रशासित किया जाएगा।
- सरकार गैर-वन क्षेत्रों में बाँस वृक्षारोपण को प्रोत्साहित कर 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करने और देश में हरित आवरण (Green Cover) को बढ़ाने के दोहरे उद्देश्य को प्राप्त करना चाहती है।
संशोधन की आवश्यकता क्यों पड़ी?
- वर्गीकरण विज्ञान (Taxonomy) के तहत इसे घास के रूप में वर्गीकृत किया गया है। किंतु, इस अधिनियम में बाँस को पेड़ की परिभाषा में शामिल करने से इसके लिये पारगमन परमिट (Transit Permit) की आवश्यकता होती थी, भले ही यह निजी भूमि पर उगाया जाता हो।
- कृषकों द्वारा कई प्रतिबंधात्मक विनियामक प्रावधानों जैसे कि कटाई, पारगमन और प्रसंस्करण के लिये अनुमति की आवश्यकता, निर्यात प्रतिबंध और उत्पादों पर रॉयल्टी और पारगमन शुल्क के कारण इस क्षेत्र की पूरी क्षमताओं का उपयोग संभव नहीं हो सका है।
- यद्यपि कई राज्य सरकारों ने किसानों को आंशिक राहत देते हुए बाँस की विभिन्न प्रजातियों के लिये पारगमन और कटाई की छूट दी है। लेकिन बाँस को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जाने के लिये परमिट की आवश्यकता होती थी।
- वन अधिकार अधिनियम, 2006 में बाँस को गैर-इमारती वनोपज के रूप में वर्गीकृत किया गया है। जबकि वन अधिनियम में इसे इमारती लकड़ी के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इस संशोधन से यह विसंगति दूर होगी।
संशोधन के लाभ
- बाँस की कृषि के मामले में भारत के पास कुल वैश्विक क्षेत्र का 19% भाग है किंतु वैश्विक बाज़ार में भारत का हिस्सा महज़ 6% है। वर्तमान में भारत में बाँस की मांग लगभग 28 मिलियन टन है। किंतु भारत द्वारा बड़ी मात्रा में चीन और वियतनाम से इसका आयात किया जाता है। इससे भारत की आयात पर निर्भरता कम होगी।
- संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (UNIDO) के मुताबिक भारत के केवल उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में ही अगले 10 वर्षों में 5,000 करोड़ मूल्य के बाँस के कारोबार की संभावनाएँ हैं।
- उत्तर-पूर्वी क्षेत्र बाँस के उत्पादन में काफी समृद्ध है एवं देश के 65% एवं विश्व के 20% बाँस का उत्पादन करता है। चीन के बाद भारत बाँस की 136 अनुवांशिक किस्मों के साथ विश्व में दूसरे स्थान पर है, जिनमें से 58 प्रजातियाँ उत्तरी पूर्वी भारत में पाई जाती है।
- यह संशोधन उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में किसानों और आदिवासियों की कृषि आय को बढ़ाने में मील का पत्थर सिद्ध होगा।
- बाँस किसानों को बड़े पैमाने पर पारिस्थितिक और आर्थिक लाभ तथा आजीविका के अवसर प्रदान कराता है। पारंपरिक रूप से यह जंगल में और आस-पास रहने वाले लोगों और किसानों द्वारा आवासीय आवश्यकताओं, खाद्य सुरक्षा और हस्तशिल्प के लिये अन्य चीज़ों के साथ उपयोग में लिया जाता है।
- यह किसानों और अन्य व्यक्तियों को कृषि भूमि और अन्य निजी भूमि पर वृक्षारोपण के अलावा, बेकार पड़ी भूमि पर उपयुक्त बाँस प्रजातियों के बागानों के विकास को प्रोत्साहित करेगा। भारत में उपलब्ध खेती योग्य व्यर्थ 12.6 मिलियन हेक्टेयर भूमि में खेती के लिये यह एक व्यवहार्य विकल्प सिद्ध हो सकता है।
- बाँस विभिन्न प्रकार के अनुप्रयोगों जैसे फर्नीचर बनाने, पल्प और पेपर उद्योग, हस्तशिल्प, सजावट और संगीत वाद्ययंत्रो के निर्माण में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है।
- यह संशोधन राष्ट्रीय बाँस मिशन की सफलता में सहायता करेगा।
विशेषज्ञों ने इस कदम का स्वागत किया है किंतु उनके अनुसार यह समस्या का आंशिक समाधान ही करेगा क्योंकि-
- इसमें निजी तौर पर उगाए गए बाँस और वन में उगने वाले बाँस के बीच अंतर करने का कोई प्रावधान नहीं है। इसके अतिरिक्त वन अधिनियम में ‘वन’ को परिभाषित नहीं किया गया है, इस कारण ‘वन क्या है’ के निर्धारण में न्यायपालिका की भूमिका बढ़ जाएगी। यह संशोधन जंगलों में बाँस के अवैध रूप से कटाई को प्रोत्साहित भी कर सकता है।
- इसके क्रियान्वयन में जनजातीय लोगों और वनवासियों के अधिकारों को सुरक्षित रखना एक प्रमुख चुनौती है।
- वनों के बाहर बाँस के लिये पारगमन परमिट देने के लिये ग्राम सभा को अधिकृत किये जाने के प्रावधान का सावधानीपूर्वक क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है ताकि इनका दुरुपयोग न किया जा सके
वन अधिनियम, 1927 के इस प्रावधान के कारण बाँस पर वन विभाग का एकाधिकार रहा और बाँस के लगभग $60 अरब के वैश्विक बाजार में भारत पीछे रह गया। भारत में वनों पर बने कानून एक औपनिवेशिक और जटिल विरासत हैं। इन कानूनों को समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप बनाने की आवश्यकता है ताकि उपलब्ध वन-संपदा का कुशल और दक्ष तरीके से इस्तेमाल किया जा सके।
बाँस (BAMBOO)
- बाँस, पोएसी (Poaceae) कुल की एक अत्यंत उपयोगी घास है। यह एक सपुष्पक, आवृतबीजी और एकबीजपत्री पादप है। गेहूँ, मक्का, जौ, बाजरा, ईख, खसखस आदि इस परिवार के अन्य महत्वपूर्ण सदस्य हैं।
- यह पृथ्वी पर सबसे तेज़ बढ़ने वाला काष्ठीय पौधा है। बाँस कटाई के बाद स्वत: पैदा हो जाता है और यह अन्य पेड़ों की तुलना में वातावरण से 25% ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है।
- बाँस की अनेक किस्में होती हैं। वैज्ञानिक इसकी लगभग 600 किस्मों का अध्ययन कर चुके हैं। सभी किस्म के बाँसों के तने चिकने और जोड़दार होते हैं। इससे ये तने सख्त और मज़बूत हो जाते हैं।
- बाँस सबसे अधिक दक्षिण-पूर्व एशिया, भारतीय उप-महाद्वीप और प्रशांत महासागर के द्वीपों पर पाए जाते हैं।
राष्ट्रीय बाँस मिशन (National Bamboo Mission)
- भारत में वन क्षेत्र का 13% हिस्सा बाँस के अंतर्गत है। देश में 137 प्रकार के बाँस उगाए जाते हैं और इनका उपयोग 1500 कार्यों में होता है।
- बाँस की इन आर्थिक क्षमताओं का दोहन करने के उद्देश्य से कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि और सहकारिता विभाग द्वारा 2006 में राष्ट्रीय बाँस मिशन शुरू किया गया।
- इसे भारत सरकार द्वारा 100% केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में शुरू की गई बागवानी के समन्वित विकास के लिये मिशन (Mission for Integrated Development of Horticulture -MIDH) की उप-योजना के रूप में कार्यान्वित किया जा रहा है। मिशन को देश के 28 राज्यों में राज्य बाँस मिशन के सहयोग से लागू किया जा रहा है।
- जुलाई 2017 में राष्ट्रीय बाँस मिशन का नाम बदलकर राष्ट्रीय कृषि-वानिकी और बाँस मिशन (National Agro-Forestry & Bamboo Mission -NABM) कर दिया गया है।