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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

स्विट्ज़रलैंड की ‘तटस्थता’ नीति

  • 02 Mar 2021
  • 9 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में स्विट्ज़रलैंड के राजदूत ने कहा कि विश्व में बदलती राजनीतिक स्थितियों के कारण स्विट्ज़रलैंड की ‘तटस्थता’ की पारंपरिक विदेश नीति (अर्थात् स्विस तटस्थता) के प्रति एक बार पुनः आकर्षण बढ़ रहा है।

Switzerland

प्रमुख बिंदु

‘तटस्थता’ की विदेश नीति

  • इस प्रकार की विदेश नीति में कोई देश भविष्य के किसी भी युद्ध में ‘तटस्थ’ रहने की प्रतिबद्धता प्रकट करता है। एक संप्रभु राज्य जो किसी अन्य पक्ष द्वारा हमला किये जाने की स्थिति में युद्ध में प्रवेश करता है तो उसे ‘सशस्त्र तटस्थता’ की स्थिति वाला देश कहा जाता है।
  • स्थायी रूप से तटस्थ देश वह संप्रभु देश होता है, जो किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि अथवा अपनी स्वयं की घोषणा के कारण भविष्य के सभी युद्धों में तटस्थ रहने को बाध्य होता है। स्थायी रूप से ‘तटस्थ’ स्विट्ज़रलैंड इसका सबसे प्रमुख उदाहरण है। इसके अलावा आयरलैंड और ऑस्ट्रिया आदि भी इसी सूची में शामिल हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में तटस्थता के मूल्य के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाने के लिये संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रत्येक वर्ष 12 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय तटस्थता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
    • राष्ट्रीय तटस्थता नीतियों का उद्देश्य निवारक कूटनीति के उपयोग को बढ़ावा देना है, जो संयुक्त राष्ट्र का एक मुख्य कार्य है।
    • यह ‘निवारक कूटनीति’ विवादों को संघर्ष का रूप लेने से रोकने और संघर्षों के प्रसार को सीमित करने के लिये की गई राजनयिक कार्यवाही को संदर्भित करती है।

स्विट्ज़रलैंड की ‘तटस्थता’ नीति और उसका विकास

  • स्विट्ज़रलैंड अपनी ‘तटस्थता’ की नीति को लेकर काफी प्रसिद्ध है, हालाँकि उसकी इस नीति को शांतिवाद की अवधारणा मानकर भ्रमित नहीं होना चाहिये। स्विट्ज़रलैंड में पुरुषों के लिये सैन्य सेवा में शामिल होना अनिवार्य है।
  • स्विट्ज़रलैंड ने अंतिम बार तकरीबन 500 वर्ष पूर्व फ्राँसीसियों के विरुद्ध जंग में हिस्सा लिया था, जिसमें स्विट्ज़रलैंड की हार हुई थी।
  • वर्ष 1783 में पेरिस संधि के तहत स्विट्ज़रलैंड को एक ‘तटस्थ’ देश के रूप में स्वीकार किया गया था।
    • पेरिस संधि पर 3 सितंबर, 1783 को ग्रेट ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा द्वारा पेरिस में हस्ताक्षर किये गए थे तथा इसने आधिकारिक रूप से अमेरिकी युद्ध को समाप्त कर दिया था।
  • प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) के दौरान स्विट्ज़रलैंड ने अपने निष्पक्ष रुख को बनाए रखा, इस दौरान स्विट्ज़रलैंड ने अपनी सेना जुटाई और शरणार्थियों को शरण दी, किंतु सैन्य रूप से किसी का भी पक्ष लेने से इनकार कर दिया।
  • 1920 में नवगठित ‘लीग ऑफ नेशंस’ ने आधिकारिक तौर पर स्विट्ज़रलैंड की ‘तटस्थता’ नीति को मान्यता दी और जिनेवा में अपना मुख्यालय स्थापित किया।
  • स्विट्ज़रलैंड की ‘तटस्थता’ नीति पर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तब खतरा उत्पन्न हो गया, जब स्विट्ज़रलैंड ने स्वयं को धुरी राष्ट्रों से घिरा पाया। हालाँकि तब भी स्विट्ज़रलैंड ने आक्रमण की स्थिति में प्रतिशोध का वादा कर अपनी स्वतंत्रता और ‘तटस्थता’ को बनाए रखा।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से स्विट्ज़रलैंड ने मानवीय पहलों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभाई है, किंतु सैन्य मामलों में वह तटस्थ रहा है। वह उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) या यूरोपीय संघ (UN) में कभी शामिल नहीं हुआ और केवल वर्ष 2002 में संयुक्त राष्ट्र में शामिल हुआ था।
  • 21वीं सदी में भी स्विट्ज़रलैंड मुश्किल विषयों पर वार्ता के लिये एक मार्ग प्रदान कर रहा है।
    • सीरिया, लीबिया और यमन को लेकर वार्ता जिनेवा में ही हुई थी।

भारत के लिये महत्त्व

  • भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति और स्विट्ज़रलैंड की तटस्थता की नीति के कारण दोनों देशों के बीच घनिष्ठ साझेदारी स्थापित हुई है।
  • वर्ष 1948 में दोनों देशों के बीच मैत्री संधि हुई थी। दोनों देश लोकतंत्र और बहुलवाद की भावना में विश्वास करते हैं।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन

  • परिचय
    • यह विश्व के 120 विकासशील देशों का एक मंच है, जिसमें वे देश शामिल हैं, जो औपचारिक तौर पर विश्व की किसी भी बड़ी महाशक्ति के गुट में शामिल नहीं हैं।
  • पृष्ठभूमि
    • इस समूह की शुरुआत वर्ष 1961 में बेलग्रेड, यूगोस्लाविया में हुई थी।
    • इस समूह का गठन यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज़ टिटो, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के दूसरे राष्ट्रपति गमाल अब्देल नासिर, घाना के पहले राष्ट्रपति क्वामे नक्रमा और इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति सुकर्णो द्वारा किया गया था।
    • गुटनिरपेक्ष आंदोलन के गठन की प्रक्रिया में वर्ष 1955 में आयोजित बांडुंग सम्मेलन को काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
  • उद्देश्य
    • इसका उद्देश्य विश्व राजनीति में एक स्वतंत्र मार्ग का निर्माण करना है, ताकि सदस्य देश प्रमुख शक्तियों के बीच संघर्ष में मात्र प्यादा बनकर न रह जाएँ।
    • यह (1) स्वतंत्र निर्णय के अधिकार, (2) साम्राज्यवाद एवं नव-उपनिवेशवाद के विरुद्ध संघर्ष और (3) वैश्विक शक्तियों के संबंध में संतुलित नीति के उपयोग को उसके दृष्टिकोण को प्रभावित करने वाले तीन मूल तत्त्वों के रूप में स्वीकारता है।
    • वर्तमान में इसका एक अतिरिक्त लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के पुनर्गठन में सहायता करना है।
  • सिद्धांत
    • मूलभूत अधिकारों और संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों और सिद्धांतों का सम्मान करना।
    • सभी देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना।
    • सभी नस्लों और सभी राष्ट्रों के बीच समानता स्थापित करना, चाहे वे छोटे हों या बड़े।
    • किसी अन्य देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
    • संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुरूप स्वयं के बचाव के लिये व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से  प्रत्येक राष्ट्र के अधिकार का सम्मान करना।
    • किसी भी वैश्विक शक्ति के विशिष्ट हितों को लाभ पहुँचाने के लिये सामूहिक रक्षा संधि का उपयोग न करना।
    • किसी भी राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता के विरुद्ध आक्रामकता और बल के उपयोग के खतरों से बचना।
    • शांतिपूर्ण ढंग से सभी अंतर्राष्ट्रीय विवादों का निपटारा करना।
    • आपसी हित और सहयोग को बढ़ावा देना।
    • न्याय और अंतर्राष्ट्रीय दायित्व का सम्मान करना।

स्रोत:द हिंदू

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