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सतलज-यमुना नहर विवाद

  • 15 Jul 2019
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में पंजाब, हरियाणा और केंद्र सरकार को सतलज-यमुना को जोड़ने वाली नहर (Satluj-Yamuna Link Canal-SYL) से जुड़े मुद्दे को सौहार्द्रपूर्ण ढंग से हल करने को कहा है।

पृष्ठभूमि

  • इस विवाद की शुरुआत 1 नवंबर, 1966 को हुए राज्य पुनर्गठन के बाद से ही शुरू हो गई थी। राज्य पुनर्गठन के चलते भौगोलिक रूप से हरियाणा राज्य तो अस्तित्व में आया लेकिन नदियों के जल के बँटवारे को सुनिश्चित नहीं किया जा सका।
  • समस्या समाधान के प्रयासों के क्रम में सर्वप्रथम तात्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वर्ष 1981 में पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई।
  • इसी समय एक अध्ययन से यह पता चला कि इन नदियों में जल की उपलब्धता 158.50 मिलियन एकड़ फीट से बढ़कर 171.50 मिलियन एकड़ फीट हो गई है।
  • इस बैठक में यह समझौता हुआ कि अतिरिक्त जल पंजाब को दिया जाएगा और पंजाब सतलज यमुना नहर के अपने हिस्से के 121 किमी. का निर्माण करवाएगा।
  • इस समझौते के तहत हरियाणा और पंजाब के जल विवाद संबंधी सभी विवादों को सर्वोच्च न्यायालय से वापस ले लिया गया।
  • इस समझौते के तहत सतलज-यमुना नहर परियोजना का निर्माण कार्य वर्ष 1991 तक पूरा हो जाना चाहिये था, लेकिन इसी समय अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोवाल ने इस मुद्दे को धार्मिक रंग दे दिया।
  • सतलज-यमुना नहर परियोजना का विरोध पूरे पंजाब में होने लगा। इसी दौरान पंजाब में उग्रवादी गतिविधियाँ शुरू हो गई और यह परियोजना बीच में ही फंस गई।
  • राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस परियोजना के संदर्भ में फिर से गंभीर प्रयास किये गए और वर्ष 1985 में पंजाब समझौते (राजीव-लोंगोवाल समझौता) में इस परियोजना को भी शामिल किया गया।
  • समझौते के बाद तात्कालिक मुख्यमंत्री सुरजीत सिंह बरनाला ने सतलज-यमुना नहर का कार्य भी शुरू कराया, लेकिन इसी समय उग्रवादियों ने कार्य स्थल पर ही कई मज़दूरों और इंजीनियरों की हत्या कर दी जिसके परिणामस्वरूप यह परियोजना ठप्प हो गई।
  • मार्च 2016 में पंजाब सरकार ने सतलज यमुना नहर से संबंधित सभी समझौतों को रद्द करते हुए नहर निर्माण के लिये अधिग्रहीत भूमि के आवंटन को भी रद्द कर दिया।

ध्यातव्य है कि पाकिस्तान के साथ जल समझौते के तहत भारत को सतलज, रावी और ब्यास के जल के उपयोग का अधिकार मिला था।

इराडी अधिकरण (Eradi Tribunal) : सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. बालकृष्ण इराडी की अध्यक्षता में वर्ष 1986 में जल विवाद के समाधान के लिये इराडी अधिकरण का गठन किया गया। अधिकरण ने वर्ष 1987 में पंजाब और हरियाणा को मिलने वाले पानी के हिस्से में क्रमशः 5 मिलियन एकड़ फीट और 3.83 मिलियन एकड़ फीट की बढ़ोतरी की सिफारिश की।

पंजाब का पक्ष: पंजाब सरकार का कहना है कि पिछले तीन दशकों में जल की आपूर्ति की स्थिति खराब हो गई है। एक अध्ययन के अनुसार, राज्य के लगभग 79 प्रतिशत क्षेत्र में भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ है, इसलिये कई क्षेत्र वर्ष 2029 के बाद सूख सकते हैं। राज्य में धान और गेहूँ की अधिक खेती होने से सिंचाई में पहले ही भूजल का अत्यधिक दोहन हो चुका है। पंजाब रिपेरियन सिद्धांत के अनुसार भी नदियों के जल पर अपना ज़्यादा अधिकार बताता है।

रिपेरियन सिद्धांत (Riparian Principle)- इस सिद्धांत के अनुसार नदी के जल पर उस राज्य या देश का अधिकार होता है, जहाँ से होकर यह बहती है

हरियाणा का पक्ष : हरियाणा के दक्षिणी भागों में, जहाँ भूमिगत जल का स्तर गिरकर 1700 फीट तक पहुँच गया है, वहाँ सिंचाई हेतु जल उपलब्ध करा पाना राज्य के लिये एक कठिन कार्य है। बढ़ती नगरीय जनसंख्या के कारण पेयजल की समस्या विकृत हो गई है।

निष्कर्ष : इस मुद्दे के राजनीतिकरण से बचते हुए सभी पक्षों के हितों को ध्यान में रख कर समाधान के प्रयास करने चाहिये। विशेषज्ञों के अनुसार सतलज-यमुना नहर से हरियाणा को जल देने के बाद राजस्थान में जलापूर्ति की समस्या हो सकती है, इसलिये इन क्षेत्रों में जल समस्या के निदान के लिये जल संरक्षण को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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