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सुप्रीम कोर्ट द्वारा मनी लॉन्ड्रिंग में ज़मानत के सख्त प्रावधान असंवैधानिक घोषित

  • 24 Nov 2017
  • 5 min read

संदर्भ

सुप्रीम कोर्ट ने प्रिवेंशन ऑफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट की धारा 45 में शामिल ज़मानत संबंधी प्रावधानों को असंवैधानिक करार देते हुए कहा है कि इस धारा में निहित प्रावधान इतने कठोर हैं कि आरोपी के लिये ज़मानत पाना लगभग असंभव है। 

  • न्यायालय ने इन प्रावधानों को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी बताया है।
  • न्यायालय ने यह निर्णय कुछ आरोपियों की याचिका पर विचार करते हुए दिया है, जिन्होंने इस कानून की धारा-45 को चुनौती दी थी।
  • हालाँकि सुनवाई के दौरान सरकार ने काले धन से निपटने में इसे कारगर बताते हुए इन प्रावधानों का बचाव किया, परंतु न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को ज़्यादा महत्त्व देते हुए कहा कि ऐसे प्रावधानों के ज़रिये नागरिकों के मौलिक अधिकार को बाधित नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय के इस फैसले से वे आरोपी ज़मानत के लिये दोबारा आवेदन कर सकेंगे जिनको पहले इन प्रावधानों के चलते ज़मानत नहीं मिल पाई थी।

क्या है मनी लॉन्ड्रिंग कानून की धारा-45 ?

  •  धन शोधन (रोकथाम) अधिनियम (PMLA)-2002 की धारा-45 के अनुसार न्यायाधीश आरोपी को ज़मानत देने का निर्णय दो स्थितियों में दे सकता है 
  • यदि न्यायाधीश के पास इस बात पर भरोसा करने का पर्याप्त आधार हो कि आरोपी ने अपराध नहीं किया होगा।
  • न्यायाधीश को इस बात का भी भरोसा होना चाहिये कि आरोपी ज़मानत के बाद इस प्रकार का अपराध दोबारा नहीं करेगा। 

इन दो कठोर शर्तों को न्यायपालिका के चिर-परिचित सिद्धांत “ज़मानत नियम है, जेल एक अपवाद है” ( bail is the rule and jail an exception)  के भी विरुद्ध माना जा रहा है।  

ज़मानत से जुड़े पहलू 

  • ज़मानत का सार यही है कि यह किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और समाज के व्यापक हित के बीच संतुलन स्थापित करने का उपकरण है। 
  • विधि आयोग ने सरकार से सिफारिश की है कि देश में ज़मानत संबंधी कानूनों में समय के अनुसार और अपराधों के बदलते पैटर्न को ध्यान में रखते हुए सुधार किया जाना चाहिये।
  • विधि आयोग ने यह भी कहा है कि आरोपियों के विरुद्ध साक्ष्य की अहम् भूमिका होनी चाहिये और जिनके विरुद्ध कमज़ोर प्रमाण हैं, उन्हें आरोप तय करने से पहले ज़मानत दे दी जानी चाहिये।
  • आतंकवाद से जुड़े मामलों पर भी विधि आयोग ने विचार व्यक्त किया है कि इन मामलों से जुड़े आरोपियों के ज़मानत-आवेदन स्वतः ही खारिज़ नहीं कर दिये जाने चाहिये, बल्कि इनके बदले प्रमाणों को ज़्यादा महत्त्व दिया जाना चाहिये। 
  • ज़मानत पाना आसान बनाने के लिये  विधि आयोग ने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 436 ए में संशोधन की भी सिफारिश की है, ताकि सात साल कारावास से अधिक के दंड वाले अपराधों के आरोपियों को उस स्थिति में ज़मानत पर रिहा किया जा सके अगर वे मुकदमे का सामना करते हुए कारावास में आधी सज़ा काट चुके हैं।  
  • विधि आयोग ने सामान्य परिस्थितियों में आरोपियों को सुनवाई से पहले कारावास में रखे जाने की प्रवृत्ति को भी कम किये जाने की बात कही है।
  • विधि आयोग के अनुसार ज़मानत प्रक्रिया में बुनियादी तौर पर दो चीज़ों का ध्यान रखा जाना चाहिये- पहला ये कि ऐसे उपाय किये जाएँ जो निर्धारित तिथि पर आरोपी को अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया जाना सुनिश्चित करें और दूसरा अपराध से पीड़ित व्यक्ति और समाज दोनों की सुरक्षा प्राथमिकता होनी चाहिये। 
  • विधि आयोग की रिपोर्ट में अपराधियों की इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग किये जाने की भी सिफारिश की गई है। यह भीड़भाड़ वाली जेलों में दबाव को कम करने में मदद करेगा। इलेक्ट्रॉनिक टैगिंग में प्रतिवादी का आसानी से पता लगाना सुनिश्चित करके फरार होने की दर को कम किया जा सकता है और सरकारी खर्चे पर हिरासत में रखे गए प्रतिवादियों की संख्या को कम करके सरकारी खर्च को घटाया जा सकता है।
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