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शासन व्यवस्था

UAPA की सख्त प्रकृति

  • 14 Jul 2021
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये

गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 1952; फादर स्टेन स्वामी

मेन्स के लिये

आतंकवाद विरोधी कानूनों की आवश्यकता और इनके दुरुपयोग की रोकथाम

चर्चा में क्यों?

हाल ही में जेसुइट पुजारी और आदिवासी अधिकार कार्यकर्त्ता फादर स्टेन स्वामी (Father Stan Swamy) की न्यायिक हिरासत में मृत्यु ने गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम [Unlawful Activities (Prevention) Act- UAPA] के कड़े प्रावधानों की तरफ सबका ध्यान खींचा है।

  • UAPA भारत का प्रमुख आतंकवाद विरोधी कानून है, जिसके कारण जमानत प्राप्त करना अधिक कठिन हो जाता है।
  • इस कठिनाई को फादर स्वामी की अस्पताल में कैदी के रूप में मौत के प्रमुख कारणों में से एक के तौर पर देखा जा रहा है और इस तरह संवैधानिक स्वतंत्रता से समझौता किया जा रहा है।

प्रमुख बिंदु

  • UAPA की पृष्ठभूमि:

    • भारत सरकार ने वर्ष 1960 के दशक के मध्य में विभिन्न अलगाव आंदोलनों को रोकने के लिये एक सख्त कानून बनाने पर विचार किया।
    • इसे बनाने की तत्कालीन प्रेरणा मार्च 1967 में नक्सलबाड़ी में एक किसान विद्रोह ने प्रदान की।
    • राष्ट्रपति ने 17 जून, 1966 को गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अध्यादेश जारी किया था।
      • इस अध्यादेश का उद्देश्य "व्यक्तियों और संघों की गैरकानूनी गतिविधियों की अधिक प्रभावी रोकथाम करना" था।
    • संसद के प्रारंभिक प्रतिरोध (इसकी कठोर प्रकृति के कारण) के बाद वर्ष 1967 में गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम पारित किया गया।
    • इस अधिनियम में किसी संघ या व्यक्तियों के निकाय, जो किसी ऐसी गतिविधि में लिप्त है तथा अलगाव की परिकल्पना करती है या देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता को अस्वीकार करती है, को "गैरकानूनी" घोषित करने का प्रावधान है।
    • UAPA के अधिनियमन से पहले संघों को आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम [Criminal Law (Amendment) Act], 1952 के अंतर्गत गैरकानूनी घोषित किया जाता था।
      • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रतिबंधों का प्रावधान गैरकानूनी था क्योंकि किसी भी प्रतिबंध की वैधता की जाँच करने के लिये कोई न्यायिक तंत्र नहीं था।
    • इसलिये UAPA में एक अधिकरण (Tribunal) का प्रावधान शामिल किया गया था, जिसे छः महीने के भीतर संगठनों को गैरकानूनी घोषित करने वाली अधिसूचना की पुष्टि करनी होती है।
    • आतंकवाद रोकथाम अधिनियम (Prevention of Terrorism Act- POTA) , 2002 के निरस्त होने के बाद UAPA का विस्तार किया गया ताकि पहले के कानूनों में आतंकवादी कृत्यों को शामिल किया जा सके।
  • अधिनियम की वर्तमान स्थिति:

    • UAPA के दायरे का विस्तार करने के लिये इसे वर्ष 2004 और वर्ष 2013 में संशोधित किया गया।
    • कानून का विस्तारित दायरा:
      • आतंकवादी कृत्यों और गतिविधियों के लिये सज़ा।
      • देश की सुरक्षा के लिये खतरा पैदा करने वाले कार्य, उसकी आर्थिक सुरक्षा (वित्तीय और मौद्रिक सुरक्षा, भोजन, आजीविका, ऊर्जा पारिस्थितिक तथा पर्यावरण सुरक्षा) शामिल है।
      • आतंकवादी उद्देश्यों के लिये धन के उपयोग को रोकने के प्रावधान।
    • संगठनों पर प्रतिबंध शुरू में दो वर्ष के लिये था लेकिन वर्ष 2013 से अभियोजन की अवधि को बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया गया है।
    • इसके अलावा इन संशोधनों का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विभिन्न आतंकवाद विरोधी प्रस्तावों और वित्तीय कार्रवाई कार्यबल की आवश्यकताओं को प्रभावी बनाना है।
    • वर्ष 2019 में व्यक्तियों को आतंकवादी के रूप में नामित करने के लिये सरकार को सशक्त बनाने हेतु अधिनियम में संशोधन किया गया था।
  • UAPA का काम करने का ढंग:

    • नशीले पदार्थों से निपटने वाले अन्य विशेष कानूनों और आतंकवाद पर प्रतिबंध लगाने से संबंधित समाप्त हो चुके कानूनों की तरह UAPA भी इसे और अधिक मज़बूत करने के लिये आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को संशोधित करता है। उदाहरण के लिये-
      • रिमांड आदेश सामान्यतः 15 के बजाय 30 दिनों के लिये हो सकता है।
      • चार्जशीट दाखिल करने से पहले न्यायिक हिरासत की अधिकतम अवधि सामान्यतः 90 दिनों से 180 दिनों तक बढ़ाई जा सकती है।
  • UAPA को लेकर विवाद:

    • आतंकवादी अधिनियम की अस्पष्ट परिभाषा: UAPA के तहत एक "आतंकवादी अधिनियम" की परिभाषा ‘आतंकवाद का मुकाबला करते हुए मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के संरक्षण पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिवेदक’ द्वारा प्रचारित परिभाषा से काफी भिन्न है।
      • दूसरी ओर UAPA "आतंकवादी अधिनियम" की एक व्यापक और अस्पष्ट परिभाषा प्रदान करता है जिसमें किसी व्यक्ति की मृत्यु या व्यक्ति को चोट लगना, किसी भी संपत्ति को नुकसान आदि शामिल है।
    • जमानत से इनकार: UAPA के साथ बड़ी समस्या इसकी धारा 43 (डी) (5) है, जिससे किसी भी आरोपी व्यक्ति के लिये जमानत प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।
      • इस मामले में यदि पुलिस ने आरोप-पत्र दायर किया है कि यह मानने के लिये उचित आधार हैं कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया सही है, तो जमानत नहीं दी जा सकती।
      • इसके अलावा इस पर सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले में स्पष्ट कहा गया है कि जमानत पर विचार करने वाली अदालत को सबूतों की बहुत गहराई से जाँच नहीं करनी चाहिये, बल्कि व्यापक संभावनाओं के आधार पर अभियोजन पक्ष से संबंधित होना चाहिये।
      • इस प्रकार UAPA वस्तुतः जमानत से इनकार करता है, जो स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार की सुरक्षा और गारंटी है।
    • ट्रायल में देरी: भारत में न्याय वितरण प्रणाली की स्थिति को देखते हुए मुकदमों के स्तर पर लंबित मामलों की दर औसतन 95.5% है।
    • राज्य को अधिक शक्ति मिलना: इसमें कोई भी ऐसा कार्य शामिल हो सकता है जो "धमकी देने की संभावना" या "लोगों में आतंक फैलाने की संभावना" से संबंधित हो तथा जो इन कृत्यों की वास्तविक जाँच के बिना सरकार को किसी भी सामान्य नागरिक या कार्यकर्त्ता को आतंकवादी घोषित करने के लिये बेलगाम शक्ति प्रदान करता है।
      • यह राज्य प्राधिकरण को उन व्यक्तियों को हिरासत में लेने और गिरफ्तार करने की अस्पष्ट शक्ति देता है, जिनके बारे में राज्य यह मानता है कि वे आतंकवादी गतिविधियों में शामिल थे।
    • संघवाद को कम आँकना: कुछ विशेषज्ञों का मानना ​​है कि यह संघीय ढाँचे के खिलाफ है क्योंकि यह आतंकवाद के मामलों में राज्य पुलिस के अधिकार की उपेक्षा करता है, यह देखते हुए कि 'पुलिस' भारतीय संविधान की 7वीं अनुसूची के तहत राज्य का विषय है।

आगे की राह:

  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सुरक्षा प्रदान करने के राज्य के दायित्व के बीच रेखा खींचना दुविधा का मामला है।
  • संवैधानिक स्वतंत्रता की अनिवार्यता और आतंकवाद विरोधी गतिविधियों के बीच संतुलन बनाना राज्य, न्यायपालिका, नागरिक समाज पर निर्भर करता है।

स्रोत: द हिंदू

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