सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु निर्धारण संबंधी कार्यदल | 21 Feb 2020
प्रीलिम्स के लियेनेटिव मैरिज़ एक्ट, सम्मति आयु अधिनियम, शारदा अधिनियम मेन्स के लियेविवाह योग्य आयु निर्धारण संबंधी आवश्यकता और प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु के प्रश्न पर दायर एक याचिका का उत्तर देते हुए केंद्र सरकार ने बताया कि इस विषय पर गहन विश्लेषण हेतु विशेष कार्यदल का गठन किया गया है।
प्रमुख बिंदु
- विशेष कार्यदल महिलाओं के लिये विवाह योग्य न्यूनतम आयु की समीक्षा करने के साथ ही मातृत्व स्वास्थ्य पर इसके निहितार्थों का अध्ययन करेगा तथा छह माह के भीतर अपनी सिफारिशें सरकार को प्रस्तुत करेगा।
- बज़ट भाषण के दौरान वित्तमंत्री ने सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु के विषय पर चर्चा करते हुए कहा कि वर्ष 1978 में पूर्ववर्ती शारदा अधिनियम द्वारा निर्धारित विवाह योग्य आयु को 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दिया गया था।
- आधुनिक समय में सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक स्तर पर भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, उच्च शिक्षा तथा कॅरियर निर्माण के क्षेत्र में महिलाओं के लिये नए अवसर सृजित हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में मातृ मृत्यु दर को कम करना तथा पोषण स्तर में सुधार किया जाना आवश्यक है।
- याचिका में दावा किया गया है कि पुरुषों और महिलाओं के विवाह की न्यूनतम आयु में अंतर रूढ़िवादी पितृसत्तात्मक मान्यताओं पर आधारित था और इसका कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है।
- याचिका में महिलाओं के विवाह हेतु निर्धारित 18 वर्ष की आयु का विरोध किया गया है, और उसे पुरुषों के विवाह हेतु निर्धारित आयु के समान करने की माँग की गई है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- नेटिव मैरिज एक्ट (Native Marriage Act)
- विवाह सुधार की दिशा में प्रथम प्रयास बाल विवाह के तीव्र विरोध के रूप में प्रारंभ हुआ। समाज सुधारकों के दबाव में बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिये वर्ष 1872 में नेटिव मैरिज एक्ट पारित किया गया।
- इस एक्ट में 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं का विवाह वर्जित कर दिया गया।
- सम्मति आयु अधिनियम (Age Consent Act)
- नेटिव मैरिज़ एक्ट विवाह सुधार की दिशा में बहुत प्रभावी नहीं हो सका, अतः एक पारसी समाज सुधारक वी. एम. मालाबारी के प्रयत्नों के परिणामस्वरूप वर्ष 1891 में सम्मति आयु अधिनियम पारित किया गया।
- इस अधिनियम में 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई।
- शारदा अधिनियम (Sharda Act)
- समाज सुधारक हर विलास शारदा के अथक प्रयासों से वर्ष 1930 में शारदा अधिनियम पारित किया गया।
- इस अधिनियम द्वारा 18 वर्ष से कम आयु के बालक तथा 14 वर्ष से कम आयु की बालिका के विवाह को अवैध घोषित कर दिया गया।
- बाल विवाह निरोधक (संशोधन) अधिनियम
- इस अधिनियम में बालक की विवाह योग्य आयु 18 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष एवं बालिका की आयु 14 वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गई।
- अधिनियम में बाल विवाह करने वालों के विरुद्ध दंड का भी प्रावधान है।
- बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम
- वर्ष 2006 में अधिक प्रगतिशील बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम द्वारा इस प्रथा को रोकने की दिशा में काम किया है। इसके अंतर्गत उन लोगों के विरुद्ध कठोर उपाय किये गए हैं जो बाल विवाह की अनुमति देते हैं और इसे बढ़ावा देते हैं।
- यह कानून नवंबर 2007 में प्रभावी हुआ।
- इस अधिनियम के अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के पुरुष और 18 वर्ष से कम आयु की महिला के विवाह को बालविवाह के रुप में परिभाषित किया गया है।
वैधानिक प्रावधान
- वर्तमान में पुरुष और महिला के लिये विवाह योग्य न्यूनतम आयु क्रमशः 21 वर्ष व 18 वर्ष निर्धारित है।
- विदित है कि विवाह की न्यूनतम आयु ऐज ऑफ मेजोरिटी (Age Of Majority) से अलग है , जो लिंग-तटस्थ है।
- इंडियन मेज़ोरिटी एक्ट (Indian Majority Act),1875 के अनुसार, एक व्यक्ति 18 वर्ष की आयु में वयस्कता प्राप्त करता है।
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 (iii) में महिला के लिये न्यूनतम आयु 18 वर्ष और पुरुष के लिये न्यूनतम आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई है।
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 सहमति से विवाह की न्यूनतम आयु महिलाओं और पुरुषों के लिये क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित करता है।
सामाजिक मान्यताएँ
- समाज में ऐसी मान्यता बनी हुई है कि बालिका का विवाह जल्दी कर देने से उसे पथ-भ्रष्ट होने से बचाया जा सकता है।
- महिलाएँ पूर्ण रूप से परिवार की देखभाल करने तथा बच्चों को जन्म देने के लिये ही बनी हैं इसलिये उनका शीघ्र ही विवाह कर देना चाहिये।
- वर्ष 2018 में परिवार कानून में सुधार के संदर्भ में विधि आयोग ने तर्क दिया कि विवाह योग्य अलग-अलग कानूनी मानक होने से "उन रूढ़िवादी मान्यताओं को बल मिलता है जो पत्नियों को पति से कमतर आँकती हैं"।
- महिला अधिकार कार्यकर्त्ताओं ने यह भी तर्क दिया है कि कानून इस रूढ़ि को बनाए रखता है कि महिलाएँ समान आयु के पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं और इसलिये उन्हें जल्द विवाह करने की अनुमति दी जा सकती है।
सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु की आवश्यकता
- प्रायः देखा गया है कि कम आयु में विवाह हो जाने से महिलाओं को जीवन भर स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सामान्यतः कम आयु में प्रजनन के दौरान माता या बच्चे की मृत्यु हो जाती है, जिससे मातृत्व मृत्यु दर तथा शिशु मृत्यु दर अधिक बनी रहती है।
- याचिकाकर्त्ता के अनुसार, महिला और पुरुष की विवाह योग्य अलग-अलग आयु संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत प्रदत्त समानता के अधिकार तथा अनुच्छेद 21 द्वारा प्राप्त गरिमामयी जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन करता है। अतः समान परिस्थितियों में अधिकारों के समान रूप से क्रियान्वयन हेतु सार्वभौमिक विवाह योग्य आयु निर्धारित करने की आवश्यकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती दो निर्णय इस दिशा में मार्गदर्शन कर सकते हैं। वर्ष 2014 में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ के वाद में ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि प्रत्येक मनुष्य समान है, इसलिये समान परिस्थितियों में सभी के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा।
- वर्ष 2018 में जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि धारा 497 समानता के अधिकार तथा महिलाओं को समान अवसर उपलब्ध कराने के अधिकार का उल्लंघन करती है।
- विधि आयोग द्वारा सिफारिश की गई थी कि महिला और पुरुष दोनों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु 18 वर्ष निर्धारित की जाए, क्योंकि पति-पत्नी की आयु में अंतर का कानून में कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।