‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2021: वन ईयर ऑफ कोविड-19’ रिपोर्ट | 07 May 2021

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी- सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट (बंंगलूरू) द्वारा ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2021: वन ईयर ऑफ कोविड-19’ शीर्षक से एक वार्षिक रिपोर्ट का प्रकाशन किया गया है।

  • इस रिपोर्ट में मार्च 2020 से दिसंबर 2020 तक की अवधि को शामिल किया गया है और यह रिपोर्ट एक वर्षीय अवधि के दौरान रोज़गार, आय, असमानता तथा गरीबी पर कोविड-19 के प्रभावों का उल्लेख करती है।

प्रमुख बिंदु

रोज़गार पर प्रभाव:

  • अप्रैल-मई 2020 में लागू लॉकडाउन के दौरान लगभग 100 मिलियन लोगों की नौकरियाँ छूट गईं।
  • हालाँकि इनमें से अधिकांश श्रमिकों को जून 2020 तक रोज़गार मिल गया था, लेकिन अभी भी लगभग 15 मिलियन लोग काम से वंचित थे।

आय पर प्रभाव:

  • चार सदस्यों के औसत परिवार वाले घरों के लिये, जनवरी 2020 में प्रति व्यक्ति मासिक आय (5,989 रुपये) की तुलना में अक्तूबर 2020 में प्रति व्यक्ति मासिक आय (4,979 रुपये) में गिरावट दर्ज की गई।
  • महामारी के दौरान श्रमिकों की मासिक आय में औसतन 17% तक की गिरावट दर्ज की गई, जिसमें स्वरोज़गार और अनौपचारिक वेतनभोगी श्रमिकों को कमाई का सबसे अधिक नुकसान हुआ।

अनौपचारिकता:

  • लॉकडाउन के बाद, लगभग आधे वेतनभोगी श्रमिकों ने अनौपचारिक कार्यो या तो स्व-नियोजित (30%), आकस्मिक वेतन (10%) या अनौपचारिक वेतनभोगी (9%) कार्यों  की ओर रुख किया ।

आर्थिक प्रभाव की प्रतिगामी प्रकृति:

  • अप्रैल और मई 2020 के महीनों में सबसे गरीब 20% परिवारों ने किसी भी प्रकार की आय का उपार्जन नहीं किया। 
  • दूसरी ओर, देश के शीर्ष 10% परिवारों को लॉकडाउन के दौरान सबसे कम नुकसान उठाना पड़ा और संपूर्ण लॉकडाउन के दौरान उन्हें फरवरी माह की आय का लगभग 20% का ही नुकसान हुआ।

महिलाओं पर प्रतिकूल प्रभाव:

  • लॉकडाउन के दौरान और बाद के महीनों में, 61 प्रतिशत कामकाजी पुरुष कार्यरत रहे है, जबकि 7 प्रतिशत लोगों ने रोज़गार खो दिया और काम पर वापस नहीं आए।
  • लेकिन महिलाओं के संदर्भ में,  केवल 19 प्रतिशत महिलाएँ ही कार्यरत रहीं और 47 प्रतिशत को लॉकडाउन के दौरान स्थायी नौकरी का नुकसान उठाना पड़ा और 2020 के अंत तक भी उनको रोज़गार नहीं मिला या वे काम पर वापस नहीं आ सकीं।

गरीबी दर में वृद्धि:

  • नौकरी खोने और आय में कमी  के कारण गरीबी में  सर्वाधिक वृद्धि हुई। 
    • परिवारों को अपने खाद्य उपभोग में कमी करके, संपत्ति बेचकर और मित्रों, रिश्तेदारों तथा साहूकारों से अनौपचारिक ऋण लेकर आय की क्षति का सामना करना पड़ा।
  • महामारी के दौरान राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन सीमा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या (अनूप सतपथी समिति द्वारा अनुशंसित 375 रुपए प्रति दिन) में 230 मिलियन की वृद्धि हुई है। गरीबी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 15 प्रतिशत अंक और शहरी क्षेत्रों में लगभग 20 प्रतिशत अंकों तक बढ़ी है।

सुझाव

  • जैसा कि भारत ने कोविड-19 की दूसरी लहर का सामना किया है और हालिया वर्षों में यह संभवतः मानव जीवन की सबसे चुनौतीपूर्ण स्थिति है, ऐसे में पहले से ही संकटग्रस्त आबादी की सहायता करने के लिये तत्काल नीतिगत उपायों को अपनाने की आवश्यकता है।
  • प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (PMGKY) के तहत अतिरिक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की पात्रता को वर्ष के अंत तक बढ़ाया जाना चाहिये।
  • मौज़ूदा डिजिटल अवसंरचना का प्रयोग करते हुए विभिन्न संवेदनशील परिवारों को तीन माह के लिये 5,000 रुपए के नकद हस्तांतरण की सुविधा दी जा सकती है। इसमें जन धन खातों का उपयोग किया जा सकता है, किंतु यह सुविधा केवल जन धन खातों तक ही सीमित नहीं होनी चाहिये।
  • मनरेगा (महात्मा राष्ट्रीय गांधी रोजगार गारंटी अधिनियम) ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इसके आवंटन को विस्तारित करने की आवश्यकता है।
  • महामारी से सबसे अधिक प्रभावित ज़िलों में एक शहरी रोज़गार कार्यक्रम को पायलट-प्रोजेक्ट के रूप में शुरू किया जा सकता है, जो संभवतः महिला श्रमिकों पर केंद्रित हो।
  • ज़मीनी स्तर पर वायरस से मुकाबला कर रहीं 2.5 मिलियन आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्त्ताओं के लिये 30,000 रुपए का एक कोविड-19 कठिनाई भत्ता (छह माह के लिये 5,000 रुपए प्रति माह) घोषित किया जाना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू