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घरेलू कामगारों के लिये सुनिश्चित करनी होगी सामाजिक सुरक्षा

  • 08 Aug 2017
  • 8 min read

सन्दर्भ

हाल ही में नोयडा के एक उच्च-मध्यम वर्ग की बसाहट वाली महागुन सोसायटी के लोगों और वहाँ के घरेलू कामगारों के तौर पर काम करने वाले तकरीबन 100 कामगारों के बीच हुआ टकराव राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहा है।

घरेलू श्रमिकों के हो रहे शोषण को देखते हुए घरेलू कार्य को भी श्रम कानूनों के दायरे में लाना होगा और इसके लिये पहले हमें व्यापक वैधानिक सुधार करने होंगे।

घरेलू कामगारों की समस्याएँ

  • एनएसएसओ (National Sample Survey Office) के आँकड़े बताते हैं कि उदारीकरण के अगले दशक में देश में घरेलू कामगारों की संख्या में 120 फीसदी की वृद्धि दर्ज़ की गई है।
  • ध्यान देने वाली बात यह है कि इस असंगठित क्षेत्र में कार्यबल का दो तिहाई हिस्सा महिलाएँ भरती हैं और उनमें से अधिकतर झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम जैसे देश के पिछड़े इलाकों से आती हैं।
  • अधिकांश घरेलू सहायिकायें अल्पायु में ही काम शुरू कर देती हैं और उन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन से भी कम वेतन दिया जाता है।
  • उन्हें नौकरी देने वाले लोगों में देश के धनाढ्य वर्ग से लेकर नव धनाढ्य होते हैं, जिनमें से अधिकतर अभी भी मालिक और कामगार के बीच के पारंपरिक अंतर में विश्वास करते हैं।
  • गृह सहायिका के रूप में काम करने वाली इन महिलाओं के साथ गाली-गलौज, मानसिक, शारीरिक एवं यौन शोषण सामान्य सी बात है।

भयावह तस्वीर पेश करते आँकड़े

  • 1931 की जनगणना में देश की 27 लाख आबादी को ‘घरेलू कामगार’ के रूप में चिह्नित किया गया था। वहीं 1971 में हुई जनगणना में यह संख्या घटकर महज 67,000 रह गई।
  • लेकिन, 1991 से 2001 के बीच अचानक घरेलू कामगारों की संख्या में 120 फीसदी की अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज़ की गई। घर से बाहर निकलकर काम करने वाली महिलाओं की संख्या में सर्वाधिक वृद्धि देखी गई।
  • विदित हो कि अधिकारिक आँकड़ों के अनुसार 2001 से 2011 के बीच देश में घरेलू कामगार के तौर पर काम करने वाली 15-59 आयुवर्ग की महिलाओं की संख्या में 70 फीसदी की वृद्धि हुई।
  • 2001 में जहाँ देश में महिला घरेलू कामगारों की संख्या 1.47 करोड़ थी, वहीं 2011 में यह संख्या बढ़कर 2.5 करोड़ हो गई।
  • 21वीं शताब्दी के पहले दशक में जहाँ आधिकारिक आंकड़े कार्यबल में महिलाओं की संख्या घटने की बात कर रहे थे, वहीं अन्य आधिकारिक अध्ययनों में सामने आया कि इस दौरान महिलाएँ बड़ी संख्या में बिना वेतन के घरेलू कामों में लगी हुई हैं। 

क्या किया जाना चाहिये ?

  • यह चिंतनीय है कि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के उस कन्वेंशन पर सहमति नहीं जताई है, जो ‘घरेलू कामगारों को सम्माननीय काम’ के उद्देश्य से आयोजित की गई थी। उल्लेखनीय है कि इस कन्वेंशन में श्रम कानूनों में बदलाव कर घरेलू काम को भी राजकीय नियमन के अधीन लाए जाने का प्रस्ताव था।
  • नोएडा और अन्य घटनाएँ कामगारों की समस्याओं के प्रति एक उदासीन प्रशासन द्वारा उपजाई त्रासदी को दर्शाती हैं। अतः भारत को इस कन्वेंशन पर हस्ताक्षर करना चाहिये।
  • फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई कानून नहीं है, जो घरेलू कामगारों के लिये नियम-कायदे तय करता हो। हालाँकि, महाराष्ट्र और केरल में जैसे राज्यों ने घरेलू कामगार कल्याण बोर्ड ज़रूर बनाए हैं।
  • वर्तमान में केंद्र सरकार के पास घरेलू कामगार कल्याण विधेयक, 2016 का मसौदा तैयार है। इस विधेयक में न्यूनतम मज़दूरी, काम करने के घंटे और नौकरी से निकालने से संबंधित प्रावधान शामिल हैं।
  • साथ ही महागुन सोसायटी विवाद जैसी स्थितियों से निपटने के लिये भी प्रावधान हैं। लेकिन, ज़रूरी यह है कि इस विधेयक को जल्दी से पारित किया जाए।
  • एक अनुमान के मुताबिक देश में घरेलू कामगारों की संख्या तकरीबन 40 लाख से एक करोड़ के बीच है और किसी भी सभ्य समाज और आधुनिक अर्थव्यवस्था में इतनी बड़ी आबादी को कानूनी सुरक्षा से बाहर नहीं रखा जा सकता है।

क्यों महत्त्वपूर्ण है घरेलू कामगार कल्याण विधेयक, 2016 ?

  • विदित हो कि घरेलू कामगार कल्याण विधेयक, 2016 के पारित हो जाने के बाद घरेलू कामगारों को राज्य के श्रम विभाग के पास कामगार के रूप में अपना पंजीकरण कराने का अधिकार होगा। इससे उन्हें कामगारों के अधिकार और लाभ मिल पाएंगे।
  • घरेलू कामगारों को अपना संघ, एसोसिएशन या संगठन बनाने का अधिकार होगा। उन्हें न्यूनतम मज़दूरी पाने, सामाजिक सुरक्षा तक पहुँच, उत्पीड़न और हिंसा से संरक्षण का अधिकार भी मिलेगा।
  • घरेलू कामगारों की न्यायालयों और न्यायाधिकरणों तक पहुँच सुनिश्चित होगी। घरेलू सहायकों को रोज़गार प्रदान करने वाली एजेंसियों के विनियमन के लिये एक तंत्र की भी स्थापना की जाएगी। साथ ही घरेलू कार्य के लिये विदेश जाने वाले कामगारों को शोषण से संरक्षण प्रदान करने का भी प्रावधान किया जाएगा।

निष्कर्ष

  • घरेलू कामगारों की बदहाली के लिये मुख्य तौर पर राज्य के उदासीन रवैये को ही ज़िम्मेवार माना गया है। इस उदासीनता के कारण ही मालिकों को लगभग-न्यायिक ताकत आजमाने की खुली आज़ादी मिल जाती है।
  • इस प्रकार की तानाशाही शक्ति आरंभिक औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने मालिकों को अर्ध-दंडदायक अधिकार के तौर पर दे रखी थी, जिसमें मालिकों को कार्य-निर्धारण का पूरा अधिकार होता था और कामगारों की काम छोड़ने या श्रम-संबंध को पुन:नियोजन करने की कोशिश को आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया जाता था।
  • निस्संदेह, कई महीनों तक लगातार वेतन न दिया जाना और काम छोड़ने में बंदिशें लगाया जाना, घरेलू काम को एक प्रकार की बंधुआ मज़दूरी के समान बना देते हैं। अतः घरेलू कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाने के गंभीर प्रयास होने चाहिये।
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