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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

पत्नी के साथ यौनाचार, बलात्कार नहीं: सुप्रीम कोर्ट

  • 10 Aug 2017
  • 6 min read

चर्चा में क्यों ?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि फौज़दारी कानून में जबरन वैवाहिक यौन संबंध बलात्कार के अपराध में शामिल है या नहीं, इस मुद्दे पर विस्तृत रूप से बहस हो चुकी है और इसे आपराधिक कृत्य नहीं माना जा सकता।
बलात्कार को परिभाषित करने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 375 की अपवाद वाली उपधारा में कहा गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी, बशर्ते पत्नी 15 वर्ष से कम की नहीं हो, के साथ स्थापित यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में नहीं आएगा।

क्यों है विवाद ?

  • कुछ लोगों का मानना है कि धारा 375 की अपवाद वाली उपधारा को हटाने की ज़रूरत है, क्योंकि यह बराबरी और गरिमामय जीवन के  संवैधानिक अधिकारों का हनन करती है। इस कानून में संशोधन करने के बाद ऐसे मामलों में महिला और दोषी व्यक्ति के रिश्तों की परवाह किये बगैर  ‘सहमति’ को तवज्जो देनी चाहिये।
  • जबकि, कुछ कानूनी विद्वानों की राय है कि घरेलू हिंसा या अलग रह रहे दंपतियों के मामलों को छोड़कर कानून को किसी की भी वैवाहिक निजता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये।
  • हालाँकि, आईपीसी में धारा 498ए और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 की व्यवस्था के बाद क्या निजी है और क्या सार्वजानिक, इसमें अंतर करना मुश्किल हो गया है।

अहम् है जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट

  • विदित हो कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानने को लेकर हुई बहस में जस्टिस जे.एस. वर्मा समिति की रिपोर्ट को  महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
  • सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे स्वर्गीय जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में बनी इस समिति में हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ और पूर्व सॉलीसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम सदस्य थे। 
  • समिति की अनुशंसा थी कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद की श्रेणी से हटा देना चाहिये, क्योंकि वैवाहिक बलात्कार को माफी या छूट देना विवाह के साथ जुड़ी उस रूढ़िवादी मान्यता को पोषित करता है, जिसके अनुसार बीवी को पति की ज़ागीर या संपत्ति समझा जाता है।
  • मार्च 2013 में गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की ओर से आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2012 पर 167वीं रिपोर्ट पेश की गई थी। तब समिति ने जस्टिस वर्मा समिति की ओर से दी गई सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया था।
  • आईपीसी की धारा 375 पर चर्चा करते हुए समिति के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया था कि विवाह के समय दी गई सहमति को हमेशा के लिये नहीं माना जा सकता और अगर पत्नियों को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिये कि वे संबंधों के बीच वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठा सकें। 
  • हालाँकि कुछ सदस्यों का ये भी मानना था कि इसे अपराध का दर्ज़ा देने से विवाह की संस्था खतरे में पड़ सकती है।

क्या होना चाहिये ?

  • विदित हो कि जस्टिस वर्मा कमेटी का कहना था कि ‘हमारा दृष्टिकोण उस अवधारणा से प्रेरित है, जिसके अनुसार एक बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी होता है, भले ही उसका पीड़ित से कोई भी संबंध हो।
  • संयुक्त राष्ट्र की महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन के लिये कन्वेंशन (The Convention on the Elimination of all Forms of Discrimination Against Women -CEDAW) के भी अंतर्गत कहा गया था; “भारत को चाहिये कि वह अपने दंड संहिता में बलात्कार की परिभाषा का दायरा बढ़ाए, ताकि महिलाओं द्वारा भोगे जा रहे यौन उत्पीड़न की व्यथा को समझकर उसका कोई समाधान निकाला जा सके”।
  • इस कन्वेंशन पर सहमति जताने के बावजूद भारत ने इस संबंध में आपेक्षित सुधार नहीं किया है।
  • दरअसल, हिन्दू धर्म में विवाह को एक कॉन्ट्रैक्ट न मानकर एक संस्कार माना गया है और 375 की अपवाद वाली उपधारा को हटाने से हो सकता है कि यह व्यवस्था प्रभावित हो, लेकिन महिलाओं के यौन उत्पीडन को भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।
  • एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत में केवल हिन्दू धर्म के ही लोग नहीं रहते बल्कि यहाँ बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी भी निवास करती है, जो शादी को एक कॉन्ट्रैक्ट मानती है, तो क्या मुसलमानों और हिन्दुओं के लिये अलग-अलग प्रावधान होना चाहिये?
  • कुल मिलाकर कहें तो यह एक जटिल मुद्दा है, जिसके समाधान के लिये न्यायपालिका और विधायिका दोनों को सम्मिलित प्रयास करने होंगे।
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