भारतीय समाज
जन्म के समय लिंगानुपात
- 25 Aug 2022
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प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, लिंग निर्धारण, सरकारी पहल। मेन्स के लिये:असंतुलित लिंगानुपात का मुद्दा, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, संतुलित लिंगानुपात सुनिश्चित करने में चुनौतियाँ, सरकारी पहल। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही के एक अध्ययन में बताया गया है कि भारत में "पुत्र पूर्वाग्रह" में गिरावट आ रही है क्योंकि जन्म के समय लिंग अनुपात वर्ष 2011 में प्रति 100 लड़कियों पर 111 लड़कों से कम होकर वर्ष 2019-21 में प्रति 100 लड़कियों पर लड़कों का अनुपात 108 हो गया।
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष:
- राष्ट्रीय परिदृश्य:
- भारत में "लापता" बच्चियों की औसत वार्षिक संख्या वर्ष 2010 के लगभग 4.8 लाख से कम होकर वर्ष 2019 में 4.1 लाख हो गई।
- यहाँ "लापता" का अर्थ है कि इस समय के दौरान कितने और महिला जन्म हुए होते यदि महिला-चयनात्मक गर्भपात नहीं होते।
- भारत की वर्ष 2011 की जनगणना में प्रति 100 लड़कियों पर 111 लड़कों से राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की वर्ष 2015-16 की रिपोर्ट में जन्म के समय लिंगानुपात थोड़ा कम होकर लगभग 109 और NFHS-5 (वर्ष 2019-21) में यह संख्या लड़कों की संख्या 108 हो गई है।
- वर्ष 2000-2019 के बीच महिला-चयनात्मक गर्भपात के कारण नौ करोड़ महिला जन्म "लापता" हो गए।
- भारत में "लापता" बच्चियों की औसत वार्षिक संख्या वर्ष 2010 के लगभग 4.8 लाख से कम होकर वर्ष 2019 में 4.1 लाख हो गई।
- धर्म के अनुसार लिंगानुपात:
- रिपोर्ट में धर्म के आधार पर लिंग चयन का भी विश्लेषण किया गया है, जिसमें कहा गया है कि सिखों के लिये यह अंतर सबसे अधिक था।
- वर्ष 2001 की जनगणना में सिखों का लिंगानुपात प्रति 100 महिलाओं पर 130 पुरुषों का था, जो उस वर्ष के राष्ट्रीय औसत 110 से कहीं अधिक था।
- वर्ष 2011 की जनगणना तक, सिखों का लिंगानुपात अनुपात प्रति 100 लड़कियों पर 121 लड़कों तक सीमित हो गया था।
- नवीनतम NFHS के अनुसार, यह अब 110 के आसपास है, जो देश के हिंदू बहुसंख्यक में जन्म के समय पुरुषों और महिलाओं के अनुपात (109) के समान है।
- ईसाई (105 लड़के पर 100 लड़कियाँ) और मुस्लिम (106 लड़के पर 100 लड़कियाँ) में लिंगानुपात प्राकृतिक मानदंड के निकट है।
- रिपोर्ट में धर्म के आधार पर लिंग चयन का भी विश्लेषण किया गया है, जिसमें कहा गया है कि सिखों के लिये यह अंतर सबसे अधिक था।
- लापता लड़कियों में धर्मवार हिस्सेदारी:
- भारतीय जनसंख्या में हिस्सेदारी:
- सिख: 2%
- हिंदू: 80%
- मुसलमान: 14%
- ईसाई: 2.3%
- लिंग-चयनात्मक गर्भपात के कारण लापता लड़कियों में हिस्सेदारी:
- सिख: 5%
- हिंदू: 87%
- मुसलमान: 7%
- ईसाई: 0.6%
- भारतीय जनसंख्या में हिस्सेदारी:
भारत में लिंगानुपात का इतिहास
- विश्व स्तर पर लड़कों की संख्या जन्म के समय लड़कियों की संख्या से कम है अर्थात् प्रति 100 महिला शिशुओं के लिये लगभग 105 पुरुष शिशुओं के अनुपात में।
- भारत में यह अनुपात वर्ष 1950 और 1960 के दशक में देश भर में प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण उपलब्ध होने से पूर्व था।
- समस्या की शुरुआत वर्ष 1970 के दशक में प्रसवपूर्व निदान तकनीक की उपलब्धता के साथ हुई, जो लिंग चयन गर्भपात की अनुमति देती है।
- भारत ने वर्ष 1971 में गर्भपात को वैध कर दिया लेकिन अल्ट्रासाउंड तकनीक की शुरुआत के कारण वर्ष 1980 के दशक में लिंग चयन का चलन शुरू हो गया।
- 1970 के दशक में, भारत का लिंगानुपात 105-100 के वैश्विक औसत के बराबर था, लेकिन 1980 के दशक की शुरुआत में यह बढ़कर प्रति 100 लड़कियों पर 108 लड़कों तक पहुँच गया और 1990 के दशक में प्रति 100 लड़कियों पर 110 लड़कों तक पहुँच गया।
संतुलित जन्म लिंग अनुपात सुनिश्चित करने में चुनौतियाँ:
- प्रतिगामी मानसिकता:
- सामान्यता केरल और छत्तीसगढ़ को छोड़कर सभी राज्यों में पुत्रों को वरीयता दी जाती है।
- लड़कों को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति प्रतिगामी मानसिकता से संबंधित है, क्योंकि लड़कियों के मामले में दहेज प्रथा का प्रचलन है।
- तकनीक का दुरुपयोग:
- अल्ट्रासाउंड जैसी सस्ती तकनीक से लिंग चयन की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है।
- कानून के कार्यान्वयन में विफलता:
- गर्भधारण पूर्व एवं प्रसवपूर्व निदान-तकनीक अधिनियम (PC-PNDT), 1994 जो स्वास्थ्य पेशेवरों और माता-पिता को बच्चे के लिंग के बारे में प्रसवपूर्व जाँच करने पर कारावास तथा भारी जुर्माने का प्रावधान करता है, लिंग चयन को नियंत्रित करने में विफल रहा है।
- रिपोर्ट में PC-PNDT को लागू करने वाले कर्मियों के प्रशिक्षण में बड़े स्तर पर खामियाँ पाई गईं।
- उचित प्रशिक्षण के अभाव का तात्पर्य है कि वे दोषियों को कानून के अनुसार दंड दिलाने में असमर्थ/अक्षम हैं।
- निरक्षरता:
- 15-49 वर्ष के प्रजनन आयु-वर्ग की निरक्षर महिलाएँ, साक्षर महिलाओं की तुलना में अधिक बच्चों को जन्म देती हैं।
आगे की राह:
- व्यवहार में पारिवर्तन लाना:
- महिला शिक्षा और आर्थिक समृद्धि में वृद्धि से लिंग अनुपात में सुधार करने में सहायता मिलती है। इसी प्रयास में सरकार के बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान ने समाज में व्यवहार परिवर्तन लाने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है।
- युवाओं को संवेदनशील बनाना:
- प्रजनन, स्वास्थ्य शिक्षा और सेवाओं के साथ-साथ लैंगिक समानता के मानदंडों के विकास के लिये युवाओं तक पहुँचने की तत्काल आवश्यकता है।
- इसके लिये, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (आशा) की सेवाओं का लाभ खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में उठाया जा सकता है।
- कानून का सख्त प्रवर्तन:
- भारत को गर्भधारण पूर्व एवं प्रसवपूर्व निदान-तकनीक अिनियम (PC-PNDT), 1994 को और अधिक सख्ती से लागू करना चाहिये और लड़कों की प्राथमिकता वाले मुद्दों से निपटने के लिये और अधिक संसाधन समर्पित करने चाहिये।
- इस संदर्भ में ड्रग्स तकनीकी सलाहकार बोर्ड का ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 में अल्ट्रासाउंड मशीनों को शामिल करने का निर्णय सही दिशा में उठाया गया एक कदम है।
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