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जैव विविधता और पर्यावरण

पेरिस समझौते से अमेरिका का अलगाव

  • 07 Nov 2019
  • 7 min read

प्रीलिम्स के लिये

पेरिस समझौता, UNFCCC

मेन्स के लिये

पेरिस समझौते से अमेरिका के अलग होने के कारण जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण पर प्रभाव

चर्चा में क्यों?

4 नवंबर, 2019 को संयुक्त राज्य अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र को सूचित करते हुए स्वयं को पेरिस समझौते से अलग करने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी।

यह प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद अमेरिका इस समझौते को छोड़ने वाला एकमात्र देश होगा। इससे पहले सीरिया तथा निकारागुआ ही इस समझौते से बाहर थे लेकिन वर्ष 2017 में उन्होंने भी इस पर हस्ताक्षर कर दिये।

पेरिस समझौता क्या है?

  • 4 नवंबर, 2016 को संपन्न पेरिस समझौता एक ऐतिहासिक अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय समझौता है जिसने दुनिया के 200 देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने तथा जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिये एकजुट किया।
  • इस संधि द्वारा वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर (Pre-Industrial level) से 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य रखा गया था। इसके साथ ही तापमान वृद्धि को और आगे चलकर 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये प्रत्येक देश को अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करना था।
  • वर्ष 1992 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (United Nations Framework Convention on Climate Change-UNFCCC) की स्थापना के बाद जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की दिशा में यह एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम था।
  • इस संधि द्वारा विकसित तथा अमीर देशों को निर्देशित किया गया था कि वे जलवायु परिवर्तन के इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये विकासशील देशों को आर्थिक तथा तकनीकी मदद प्रदान करें।

पेरिस समझौते से अलग होने की प्रक्रिया

  • पेरिस समझौते का अनुच्छेद-28, किसी भी हस्ताक्षरकर्त्ता देश के इससे अलग होने के प्रावधानों का वर्णन करता है।
  • इसके अनुसार, कोई भी हस्ताक्षरकर्त्ता देश पेरिस समझौते के गठन के तीन वर्ष बाद (4 नवंबर 2016) ही इससे अलग होने के लिये सूचना दे सकता है। इसके अलावा सूचित करने के एक वर्ष बाद ही उक्त देश को इस समझौते से अलग माना जाएगा। इस प्रकार अमेरिका इस समझौते से वर्ष 2020 में औपचारिक रूप से अलग होगा।

अमेरिका के इससे अलग होने की वजह:

  • वर्ष 2016 के चुनाव प्रचार के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते को अमेरिका के हितों के खिलाफ बताया था तथा अपने चुनावी वादों में उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया था कि यदि वे बतौर राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो अमेरिका को इस समझौते से अलग करना उनकी प्राथमिकता होगी।
  • राष्ट्रपति निर्वाचित होने के बाद जून 2017 में उन्होंने अमेरिका के इस समझौते से अलग होने की यह घोषणा की लेकिन तब तक पेरिस समझौते को तीन वर्ष पूरे नहीं हुए थे।

अमेरिका का अलग होना: पेरिस समझौते के लक्ष्यों पर प्रभाव

  • चीन (27%) के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका (15%) विश्व में ग्रीनहाउस गैसों दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। यदि इसके द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं की जाती है तो समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करना मुश्किल होगा।
  • पेरिस समझौते में की गई प्रतिबद्धता के अनुसार अमेरिका को अपने 2005 के स्तर से 2025 तक अपने उत्सर्जन को घटाकर 26-28 प्रतिशत तक कम करना था।
  • अमेरिका का इससे अलग होने का सबसे बड़ा प्रभाव जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिये प्राप्त होने वाले वित्तीय संसाधनों पर पड़ेगा। समझौते के अंतर्गत हरित जलवायु कोष (Green Climate Fund) में अमेरिका की सर्वाधिक भागीदारी थी। अतः इसकी अनुपस्थिति में समझौते के लक्ष्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
  • समझौते के अनुसार सभी विकसित देशों का यह कर्त्तव्य होगा कि जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिये वे हरित जलवायु कोष में वर्ष 2020 से प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता दें। अमेरिका का इससे अलग होने से अन्य देशों पर अतिरिक्त भार बढ़ेगा।
  • अमेरिका के इस समझौते से अलग होने का यह अर्थ नहीं है कि वह अपने इन लक्ष्यों का परित्याग कर देगा लेकिन ऐसा करने से वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये बाध्य नहीं होगा। इसके साथ ही अमेरिका पेरिस समझौते में दोबारा शामिल होने के लिये स्वतंत्र होगा।
  • हालाँकि अमेरिका पेरिस समझौते से अलग हो जाएगा लेकिन पेरिस समझौते की मातृसंस्था UNFCCC का हस्ताक्षरकर्त्ता होने की वजह से वह इस संगठन के अन्य प्रक्रियाओं तथा बैठकों में शामिल रहेगा।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन

(United Nations Framework Convention on Climate Change-UNFCCC)

  • यह विश्व का पहला अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय समझौता है जिसके तहत जलवायु परिवर्तन की समस्या को संज्ञान में लिया गया था। इसका प्रस्ताव वर्ष 1992 के रियो पृथ्वी सम्मलेन (Rio Earth Summit) में रखा गया था तथा वर्ष 1994 में यह प्रभावी रूप से लागू हुआ।
  • इसका प्रमुख उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को संतुलित करना तथा मानवजनित कारकों का वातावरण पर होने वाले दुष्प्रभावों को रोकना है।
  • इसका सचिवालय बॉन, जर्मनी में है।

स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस

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