सामाजिक न्याय
SC/ST (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून 2018: SC का निर्णय
- 11 Feb 2020
- 9 min read
प्रीलिम्स के लियेएससी/एसटी (अत्याचार निवारण) कानून 1989 के प्रावधान मेन्स के लियेएससी/एसटी (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून 2018 के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का प्रभाव |
चर्चा में क्यों ?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून (SC/ST Atrocities Amendment Act), 2018 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर निर्णय देते हुए इसकी संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है।
प्रमुख बिंदु:
- सर्वोच्च न्यायालय ने 20 मार्च 2018 के अपने पूर्ववर्ती निर्णय को पलटते हुए स्पष्ट किया कि इस कानून के अंतर्गत गिरफ्तारी से पूर्व प्राथमिक जाँच की ज़रूरत नहीं है।
- साथ ही इस तरह के मामलों में गिरफ्तारी से पूर्व किसी अथॉरिटी से अनुमति लेना भी अनिवार्य नहीं है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि अपने विरुद्ध दर्ज़ FIR को रद्द कराने के लिये आरोपी व्यक्ति न्यायालय की शरण में जा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार यदि प्रथम दृष्टया एससी/एसटी अधिनियम के तहत कोई मामला नहीं बनता है तो किसी भी न्यायालय द्वारा FIR को रद्द किया जा सकता है।
अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये तमाम सामाजिक आर्थिक बदलावों के बावजूद सिविल अधिकार कानून 1955 व भारतीय दंड संहिता 1860 के प्रावधान इस वर्ग के लोगों की समस्याओं को सही तरीके से संबोधित नहीं कर पा रहे थे, ऐसी परिस्थिति में संसद ने वर्ष 1989 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया।
- राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर किये जाने के बाद 30 जनवरी 1990 को यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया गया।
प्रावधान
- यदि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्ग के अतिरिक्त कोई व्यक्ति किसी भी तरह से किसी अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति वर्ग से संबंध रखने वाले किसी व्यक्ति को प्रताड़ित करता है, तो उसके विरुद्ध यह कानून कार्य करता है।
- इसके अलावा यह कानून पीड़ितों को विशेष सुरक्षा देता है। इस कानून के तहत पीड़ित को अलग-अलग अपराध से पीड़ित होने पर 75,000 रुपए से लेकर 8 लाख 50 हजार रुपए तक की सहायता दी जाती है।
- साथ ही ऐसे मामलों के लिये इस कानून के तहत विशेष न्यायालय बनाए जाते हैं जो ऐसे प्रकरण में तुरंत निर्णय लेते हैं।
- इस कानून के तहत महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में पीड़ित को राहत राशि और अलग से मेडिकल जाँच की भी व्यवस्था है।
सर्वोच्च न्यायालय का पूर्ववर्ती निर्णय
- सर्वोच्च न्यायालय ने 20 मार्च 2018 को सुभाष काशीनाथ बनाम महाराष्ट्र राज्य के वाद में निर्णय देते हुए यह प्रावधान किया कि-
- एससी/एसटी कानून के मामलों की जाँच कम से कम डिप्टी एसपी रैंक के अधिकारी द्वारा की जाएगी। पहले यह कार्य इंस्पेक्टर रैंक का अधिकारी करता था।
- यदि किसी आम आदमी पर एससी-एसटी कानून के अंतर्गत केस दर्ज होता है, तो उसकी भी गिरफ्तारी तुरंत नहीं होगी बल्कि इसके लिये जिले के SP या SSP से अनुमति लेनी होगी।
- किसी व्यक्ति पर केस दर्ज होने के बाद उसे अग्रिम जमानत भी दी जा सकती है।
- अग्रिम जमानत देने या न देने का अधिकार दंडाधिकारी के पास होगा। अभी तक अग्रिम जमानत नहीं मिलती थी तथा जमानत भी उच्च न्यायालय द्वारा दी जाती थी।
- किसी भी सरकारी कर्मचारी/अधिकारी पर केस दर्ज होने पर उसकी गिरफ्तारी तुरंत नहीं होगी, बल्कि उस सरकारी अधिकारी के विभाग से गिरफ्तारी के लिये अनुमति लेनी होगी।
- न्यायालय द्वारा स्पष्ट किया गया है कि यह जाँच पूर्ण रूप से समयबद्ध होनी चाहिये। जाँच किसी भी सूरत में 7 दिन से अधिक समय तक न चले। इन नियमों का पालन न करने की स्थिति में पुलिस पर अनुशासनात्मक एवं न्यायालय की अवमानना करने के संदर्भ में कार्यवाई की जाएगी।
उत्पीड़न के ज़्यादातर मामले झूठे हैं
- नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के संबंध में विचार करने पर ज्ञात होता है कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम में दर्ज ज़्यादातर मामले झूठे पाए गए।
- न्यायालय द्वारा अपने फैसले में ऐसे कुछ मामलों को शामिल किया गया है जिसके अनुसार 2016 की पुलिस जाँच में अनुसूचित जाति को प्रताड़ित किये जाने के 5347 झूठे मामले सामने आए, जबकि अनुसूचित जनजाति के कुल 912 मामले झूठे पाए गए।
- वर्ष 2015 में एससी-एसटी कानून के तहत न्यायालय द्वारा कुल 15638 मुकदमों का निपटारा किया गया। इसमें से 11024 मामलों में या तो अभियुक्तों को बरी कर दिया गया या फिर वे आरोप मुक्त साबित हुए। जबकि 495 मुकदमों को वापस ले लिया गया।
केंद्र सरकार द्वारा किये गए संशोधन
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध केंद्र सरकार ने एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) संशोधन कानून 2018 पारित करते हुए अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के मूल प्रावधानों को फिर से लागू कर दिया, जो इस प्रकार हैं -
- एससी/एसटी संशोधन विधेयक 2018 के जरिये मूल कानून में धारा 18A जोड़ी गई, इसके अंतर्गत पुराने कानून को बहाल कर दिया गया।
- नए प्रावधानों के अनुसार, अब इस तरह के मामले में केस दर्ज होते ही गिरफ्तारी का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त आरोपी को अग्रिम जमानत भी न देने की व्यवस्था की गई।
- आरोपी को उच्च न्यायालय से ही नियमित जमानत मिल सकेगी। अब पूर्व की भाँति मामले की जाँच इंस्पेक्टर रैंक के पुलिस अधिकारी करेंगे।
- जातिसूचक शब्दों के इस्तेमाल संबंधी शिकायत पर तुरंत मामला दर्ज होगा।
- एससी/एसटी मामलों की सुनवाई सिर्फ स्पेशल कोर्ट में होगी।
- सरकारी कर्मचारी/अधिकारी के विरुद्ध न्यायालय में चार्जशीट दायर करने से पहले जाँच एजेंसी को अथॉरिटी से अनुमति लेने की अनिवार्यता नहीं होगी।
आगे की राह:
- लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार दिये गए हैं और कानून के समक्ष भी सभी को समान माना गया है। ऐसे में किसी भी नागरिक के अधिकारों का हनन अनुचित है फिर चाहे वह सवर्ण हो या दलित। न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय भी इसी तर्क की पुष्टि करता है।
- यह शासनतंत्र की ज़िम्मेदारी है कि वह पिछड़े समुदायों और दलितों के संरक्षण हेतु बनाए गए कानूनों का ईमानदारीपूर्वक और भेदभाव रहित दृष्टिकोण अपनाकर अनुपालन सुनिश्चित करे, जिससे इन वर्गों के भीतर उत्पन्न असुरक्षा और उत्पीड़न का डर समाप्त हो सके एवं इनका शासनतंत्र और न्याय प्रणाली में विश्वास बना रहे।