संवैधानिक विफलता से संबंधित उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक | 19 Dec 2020
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय (HC) के उस आदेश पर रोक लगा दी है, जिसमें राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता की जाँच करने का इरादा व्यक्त किया गया था, जो कि संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करने हेतु आवश्यक है।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश को ‘निराशाजनक’ बताते हुए इस मामले को क्रिसमस के अवकाश के बाद के लिये सूचीबद्ध किया है।
प्रमुख बिंदु
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय (HC) का निर्णय
- अक्तूबर 2020 में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की सुनवाई करते हुए आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय (HC) ने स्वतः संज्ञान लेकर राज्य अधिवक्ता को यह तय करने में सहयोग करने हेतु तलब किया था कि राज्य की मौजूदा स्थिति के मद्देनज़र न्यायालय को संवैधानिक तंत्र की विफलता के निष्कर्ष तक पहुँचना चाहिये अथवा नहीं।
- बंदी प्रत्यक्षीकरण उस व्यक्ति के संबंध में न्यायालय द्वारा जारी आदेश होता है, जिसे किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा हिरासत में रखा गया है। यह किसी व्यक्ति को जबरन हिरासत में रखने के विरुद्ध होता है।
- यह रिट मनमाने ढंग से हिरासत में लिये जाने के विरुद्ध व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करती है और इसे सार्वजनिक प्राधिकरणों या व्यक्तिगत दोनों के विरुद्ध जारी किया जा सकता है।
राज्य सरकार की अपील
- राज्य सरकार का तर्क है कि उच्च न्यायालय ने बिना किसी वैध आधार के संवैधानिक तंत्र की विफलता की बात की है।
- राज्य सरकार ने कहा कि संवैधानिक तंत्र की विफलता से संबंधित अनुच्छेद 356 के तहत निर्धारित शक्तियाँ विशिष्ट रूप से कार्यपालिका में निहित हैं न कि न्यायपालिका में।
- संवैधानिक ढाँचे के तहत राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता पर निर्णय लेना न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि उनके पास इस संबंध में कोई भी न्यायिक मानक मौजूद नहीं है।
- यह अधिकार कार्यपालिका में निहित है और इस प्रकार के अधिकार के प्रयोग का निर्णय विस्तृत तथ्यात्मक विश्लेषण पर आधारित होना अनिवार्य है।
- इस तरह आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का आदेश कार्यपालिका की शक्तियों पर एक गंभीर अतिक्रमण है और साथ ही यह ‘शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत’ का भी उल्लंघन करता है, अतः यह निर्णय संविधान की मूल संरचना के विरुद्ध है।
- शक्ति के पृथक्करण से आशय सरकार के कार्यों (विधायी, कार्यकारी और न्यायिक) के विभाजन से है।
- चूँकि किसी भी कानून के निर्माण, क्रियान्वयन और प्रशासन के लिये राज्य के तीन अंगों (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका) की आवश्यकता होती है, जिससे मनमाने ढंग से शक्तियों के प्रयोग की संभावना कम हो जाती है।
राष्ट्रपति शासन
- यह राज्य सरकार के निलंबन और उस राज्य के प्रत्यक्ष तौर पर केंद्र सरकार के नियंत्रण में आने की स्थिति को संदर्भित करता है। इसे 'राज्य आपातकाल' या 'संवैधानिक आपातकाल' के रूप में भी जाना जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1994 में बोम्मई मामले में उन सभी स्थितियों को सूचीबद्ध किया था, जहाँ अनुच्छेद 356 के तहत शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता था।
- ऐसी ही एक स्थिति है- ‘त्रिशंकु सदन’ (Hung Assembly) यानी वह स्थिति जहाँ आम चुनावों के बाद कोई भी दल बहुमत हासिल नहीं पाता है।
- केंद्रीय मंत्रिपरिषद (कार्यपालिका) की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 356 के माध्यम से राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है।
- राष्ट्रपति शासन तब लागू किया जाता है, जब राष्ट्रपति, राज्य के राज्यपाल की रिपोर्ट प्राप्त करने पर इस बात से सहमत हो कि राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जहाँ राज्य का प्रशासन संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है।
- संसदीय स्वीकृति और अवधि:
- राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद दो महीने की अवधि के भीतर इसके लिये संसद के दोनों सदनों से मंज़ूरी लेना आवश्यक होता है।
- यह मंज़ूरी दोनों सदनों में साधारण बहुमत यानी सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से प्राप्त की जा सकती है।
- प्रारंभ में राष्ट्रपति शासन केवल छह महीने के लिये वैध होता है और इसे संसद की मंज़ूरी से अधिकतम तीन वर्ष के लिये बढ़ावा जा सकता है।