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भारतीय राजव्यवस्था

पदोन्नति में आरक्षण हेतु मापदंड निर्धारण से सर्वोच्च न्यायालय का इनकार

  • 29 Jan 2022
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

आरक्षण, पदोन्नति, सर्वोच्च न्यायालय, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, इंदिरा साहनी केस, एम नागराज केस

मेन्स के लिये:

निर्णय और मामले, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से संबंधित मुद्दे, पदोन्नति में आरक्षण और इससे संबंधित विभिन्न मामले।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों के लिये पदोन्नति में आरक्षण देने हेतु प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता का निर्धारण करने के लिये मापदंड तय करने से इनकार कर दिया।

न्यायालय का यह फैसला देश भर में दाखिल उन याचिकाओं पर दिया गया है, जिनमें पदोन्नति में आरक्षण देने के तौर-तरीकों पर और स्पष्टता की मांग की गई थी।

प्रमुख बिंदु

  • सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
    • डेटा एकत्र करने हेतु ‘कैडर’:
      • न्यायालय ने पदोन्नति कोटा देने हेतु मात्रात्मक डेटा के संग्रह के उद्देश्य से इकाई के रूप में 'कैडर' का निर्धारण किया है, न कि वर्ग, समूह या संपूर्ण सेवा।
      • न्यायालय ने कहा कि यदि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधित्व से संबंधित डेटा संग्रह पूरी ‘सेवा’ के संदर्भ में किया जाता है, तो पदोन्नति में आरक्षण की पूरी कवायद निरर्थक हो जाएगी।
    • कोई मापदंड नहीं:
      • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदाय के पर्याप्त प्रतिनिधित्व का प्रश्न निर्धारित करने के लिये संबंधित राज्यों पर छोड़ दिया जाना चाहिये और न्यायालय प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता का निर्धारण करने के लिये कोई मानदंड निर्धारित नहीं कर सकता है।
    • ‘बी.के. पवित्रा’ वाद (2019) के निर्णय को रद्द करना:
      • मात्रात्मक डेटा के संग्रह के लिये इकाई के रूप में 'कैडर' की मान्यता के साथ न्यायालय ने ‘बी.के. पवित्रा’ वाद (2019) के निर्णय को रद्द कर दिया था।
      • सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि समूहों के आधार पर डेटा के संग्रह को मंज़ूरी देने वाला निष्कर्ष ‘नागराज और जरनैल सिंह’ वाद के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित नियमों के विपरीत है।
      • न्यायालय ने माना कि ‘नागराज और जरनैल सिंह’ वाद के फैसले का ‘प्रत्याशित प्रभाव’ होगा।
    • समीक्षा का आदेश:
      • सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि पदोन्नति में प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता का निर्धारण करने के उद्देश्य से डेटा के संबंध में समीक्षा की जानी चाहिये।
      • हालाँकि न्यायालय ने राज्यों के लिये समीक्षा करने हेतु "उचित" समय तय करने का निर्णय केंद्र सरकार पर छोड़ दिया है।
  • पृष्ठभूमि:
    • पदोन्नति में आरक्षण:
      • 1950 के दशक से केंद्र और राज्य सरकारें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति समुदायों के पक्ष में पदोन्नति में सीटें आरक्षित करने की नीति का पालन कर रही हैं क्योंकि सार्वजनिक सेवाओं में निर्णय निर्माण प्रक्रिया के स्तर पर उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
    • इंदिरा साहनी वाद 1992:
      • पदोन्नति में आरक्षण की इस नीति को इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ 1992 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक और शून्य माना गया क्योकि सार्वजनिक सेवाओं में भर्ती के समय केवल प्रवेश के स्तर पर अनुच्छेद 16 (4) के तहत राज्य को पिछड़े वर्गों के नागरिकों के पक्ष में आरक्षण की शक्ति प्रदान की गई है।
      • 77वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 16(4A) को शामिल किया गया।
    • एम नागराज वाद 2006:
      • इस मामले में पदोन्नति हेतु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने इंद्रा साहनी मामले (1992) में अपने पूर्व निर्णय को पलट दिया, जिसमें उसने एससी/एसटी (जो ओबीसी पर लागू था) को क्रीमी लेयर की अवधारणा में बाहर कर दिया था।
      • SC ने संवैधानिक संशोधनों जिसके द्वारा अनुच्छेद 16 (4A) और 16 (4B) को जोड़ा गया था यह कहते हुए बरकरार रखा कि वे अनुच्छेद 16 (4) से संबंधित हैं तथा ये अनुच्छेद की मूल संरचना को परिवर्तित नहीं करते हैं।
      • इसने सार्वजनिक रोज़गार में एससी और एसटी समुदायों के लोगों की संख्या को बढ़ाने हेतु तीन शर्तें भी रखीं:
        • अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदाय को सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होना चाहिये।
        • सार्वजनिक रोज़गार में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व का अभाव हो।
        • आरक्षण नीति प्रशासन में समग्र दक्षता को प्रभावित नहीं करेगी।
      • न्यायालय ने कहा कि सरकार अपने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों हेतु पदोन्नति में कोटा तब तक लागू नहीं कर सकती जब तक कि यह साबित नहीं हो जाता कि विशेष समुदाय पिछड़ा हुआ, अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने से लोक प्रशासन की समग्र दक्षता प्रभावित नहीं होगी।
        • सरकार की राय मात्रात्मक आंँकड़ों पर आधारित होनी चाहिये।
    • जरनैल सिंह वाद 2018:
      • जरनैल सिंह मामले (2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने नागराज फैसले को एक उच्च पीठ को संदर्भित करने से इनकार कर दिया, परंतु बाद में यह कहकर अपने निर्णय को बदल दिया कि राज्यों को SC/ST समुदायों के पिछड़ेपन के मात्रात्मक डेटा प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है।
      • न्यायालय ने सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (SC/ST) के सदस्यों के लिये "परिणामी वरिष्ठता के साथ त्वरित पदोन्नति" प्रदान करने के सरकार के प्रयासों को एक बड़ा प्रोत्साहन दिया था।

आरक्षण में पदोन्नति हेतु संवैधानिक प्रावधान:

  • संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुसार, राज्य सरकारें अपने नागरिकों के उन सभी पिछड़े वर्गों के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण हेतु प्रावधान कर सकती हैं, जिनका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
  • अनुच्छेद 16(4A) के अनुसार, राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पक्ष में पदोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिये कोई भी प्रावधान कर सकती हैं यदि राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
  • अनुच्छेद 16 (4B): इसे 81वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा जोड़ा गया, जिसमें एक विशेष वर्ष के रिक्त SC/ST कोटे को अगले वर्ष के लिये स्थानांतरित कर दिया गया।
  • अनुच्छेद 335: के अनुसार, सेवाओं और पदों को लेकर SC और ST के दावों पर विचार करने हेतु विशेष उपायों को अपनाने की आवश्यकता है, ताकि उन्हें बराबरी के स्तर पर लाया जा सके।
  • 82वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2000 ने अनुच्छेद 335 में एक शर्त सम्मिलित की जो कि राज्य को किसी भी परीक्षा में अर्हक अंक में छूट प्रदान करने हेतु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के पक्ष में कोई प्रावधान करने में सक्षम बनाता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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