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भारतीय राजव्यवस्था

मृत्युदंड पर SC का संदर्भ

  • 27 Sep 2022
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये:

मृत्युदंड, भारतीय दंड संहिता, बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य।

मेन्स के लिये:

भारत में मृत्युदंड के पक्ष और विरोध में तर्क, मृत्युदंड पर SC का संदर्भ।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने एक बड़ी बेंच को मृत्युदंड देने के मानदंडों से संबंधित मुद्दों को संदर्भित किया है।

न्यायालय का आदेश:

  • सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीशों की पीठ का वर्तमान संदर्भ में पांँच-न्यायाधीशों की पीठ मेंं रूपांतरण इस तर्क पर आधारित है कि एक ही दिन में सज़ा की प्रक्रिया आरोपी के खिलाफ निराशाजनक रूप से झुकी हुई है।
  • पीठ ने कहा कि राज्य को मुकदमे की पूरी अवधि के दौरान अभियुक्तों के खिलाफ आपत्तिजनक परिस्थितियों को पेश करने का अवसर दिया जाता है।
  • दूसरी ओर, आरोपी अपनी दोषसिद्धि के बाद ही अपने पक्ष में परिस्थितियों को कम करने वाले साक्ष्य पेश करने में सक्षम होते हैं।

मुद्दा:

  • सज़ा की सुनवाई कब और कैसे होनी चाहिये, इस पर परस्पर विरोधी निर्णय हैं कि क्या सज़ा के निर्धारण पर कार्यवाही निर्णय के दिन ही होनी चाहिये या कुछ दिन बाद।
  • यह मुद्दा उन लोगों को अर्थपूर्ण अवसर देने से संबंधित है जो मृत्युदंड के दोषी पाए गए हैं और वे मृत्युदंड के बजाय आजीवन कारावास के संबंध में बेहतर दलील जैसे कारकों और परिस्थितियों को पेश कर सकें।
  • मुद्दा कानूनी आवश्यकता से उत्पन्न होता है कि जब भी कोई न्यायालय दोषसिद्धि दर्ज करता है, तो उसे सज़ा के स्तर को लेकर अलग से सुनवाई करनी होती है।

कानून और निर्णय क्या हैं?

  • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 235 के अनुसार, यदि आरोपी को दोषी ठहराया जाता है, तो न्यायाधीश सज़ा के सवाल पर आरोपी की सुनवाई करेगा और फिर सज़ा सुनाएगा।
    • यह प्रक्रिया तब महत्त्वपूर्ण हो जाती है, यदि दोषसिद्धि किसी ऐसे अपराध के लिये है जिसमें मृत्यु या आजीवन कारावास शामिल है।
  • धारा 354(3) के अनुसार, मृत्युदंड या आजीवन कारावास के मामले में निर्णय में यह बताना होगा कि सज़ा क्यों दी गई।
  • यदि सज़ा, मृत्युदंड है तो निर्णय में "विशेष कारण" प्रदान करना होगा।
  • 1980 में सर्वोच्च न्यायालय ने 'बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य' में मृत्युदंड की संवैधानिकता को इस शर्त पर बरकरार रखा कि यह सज़ा "दुर्लभ से दुर्लभतम" मामलों में दी जाएगी।
    • महत्त्वपूर्ण रूप से न्यायालय ने यह भी ज़ोर दिया कि सज़ा की सुनवाई अलग से होगी, जहाँ एक न्यायाधीश को इस बात पर राजी करने की कोशिश की जाएगी कि मृत्युदंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिये।
  • न्यायालय के कई बाद के फैसलों में इस स्थिति को दोहराया गया था, जिसमें 'मिठू बनाम पंजाब राज्य', 1982 में पाँच न्यायाधीशों की बेंच ने अनिवार्य मृत्युदंड को खारिज कर दिया था, क्योंकि यह सज़ा देने से पहले किसी आरोपी के सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन करता है। .

निर्णय के दिन ही सज़ा:

  • भले ही सभी मुकदमों में सज़ा पर एक अलग सुनवाई का अभ्यास किया जाता है, लेकिन अधिकांश न्यायाधीश ऐसे मामले को दोबारा निर्णय के लिये भविष्य की तारीख के लिये स्थगित नहीं करते हैं।
  • जैसे ही 'दोषी' पर फैसला सुनाया जाता है, न्यायालय दोनों पक्षों के वकील से सज़ा पर बहस करने के लिये कहता है।
  • एक विचार है कि मृत्युदंड संबंधी निर्णय 'एक ही दिन में देने' से प्रतिवादी को अपर्याप्त समय मिलता है और यह प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है क्योंकि दोषियों की सज़ा को कम करने वाले कारकों को इकट्ठा करने के लिये पर्याप्त समय नहीं मिलता है।
  • निर्णयों की एक शृंखला में सर्वोच्च न्यायालय ने वकालत की है कि सज़ा की सुनवाई अलग से की जाए, यानी दोषसिद्धि के बाद भविष्य की तारीख में।
  • हालाँकि एक तरह के विरोधाभास के रूप में कई निर्णयों ने 'एक ही दिन' सज़ा देने की प्रथा को बरकरार रखा है।

संभावित परिणाम:

  • सज़ा के निर्णय संबंधी परिस्थितियों और कारकों पर संविधान पीठ व्यापक दिशा-निर्देश निर्धारित कर सकती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ट्रायल कोर्ट के लिये सज़ा सुनाने से पहले आरोपी को बेहतर तरीके से जानना ज़रूरी बना सकता है।
  • न्यायालय मनोवैज्ञानिकों और मनोविश्लेषणात्मक विशेषज्ञों की मदद का मसौदा तैयार कर सकता है।
    • सज़ा प्रक्रिया के हिस्से के रूप में आरोपी के बचपन के अनुभवों और पालन-पोषण, परिवार का मानसिक स्वास्थ्य इतिहास एवं दर्दनाक अतीत के अनुभव तथा अन्य सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारकों की संभावना का अध्ययन करना अनिवार्य हो सकता है।
  • इसका मतलब यह हो सकता है कि ट्रायल कोर्ट को वर्तमान कार्य प्रणालियों के विपरीत बेहतर तरीके से सूचित किया जाएगा, जब केवल बुनियादी डेटा जैसे कि शैक्षिक और आर्थिक स्थिति का पता लगाने से पहले सज़ा सुनाई जाती है।

मृत्युदंड:

  • मृत्युदंड सज़ा का कठोरतम रूप है। यह दंड मानवता के विरुद्ध नृशंस और जघन्य अपराधों के लिये दिया जाता है।
    • भारतीय दंड संहित के तहत वे कुछ अपराध, जिनके लिये अपराधियों को मौत की सज़ा  दी जा सकती है:
      • हत्या (धारा 302)
      • डकैती (धारा 396)
      • आपराधिक षड्यंत्र (धारा 120B)
      • भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध या युद्ध का प्रयत्न करना या युद्ध करने का दुष्प्रेरण करना (धारा 121)
      • विद्रोह का उन्मूलन (धारा 132) और अन्य।
  • मृत्युदंड के लिये ‘डेथ पेनाल्टी’ और ‘कैपिटल पनिशमेंट’ शब्द का इस्तेमाल एक-दूसरे के स्थान पर होता रहा है, हालाँकि हमेशा ही अनिवार्य रूप से इस दंड का क्रियान्वयन नहीं होता है। इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति द्वारा आजीवन कारावास या क्षमा में रूपांतरित किया जा सकता है।
  • आगे की राह
  • सुनवाई इस बहस को प्रभावी ढंग से सुलझाएगी कि क्या ट्रायल कोर्ट द्वारा मौत की सज़ा देने वाली तीव्र सुनवाई- कुछ मामलों में कुछ दिनों में- कानूनी रूप से मान्य है।
  • मौत की सज़ा का निर्धारण करने वाले मानकों के स्तर को बढ़ाने की दिशा में भी यह फैसला एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है।
  • सज़ा का उद्देश्य केवल अपराधी को खत्म करना नहीं बल्कि अपराध को समाप्त करने पर भी होना चाहिये। आपराधिक कानून में सज़ा का उद्देश्य, यदि व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो एक व्यवस्थित समाज के लक्ष्य को प्राप्त करना है। अपराधी और पीड़ित के अधिकारों को संतुलित करके शांति बहाली सुनिश्चित करने और भविष्य में होने वाले अपराधों को रोकने की आवश्यकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रश्न. मृत्युदंड की सज़ा  को कम करने में राष्ट्रपति की देरी के उदाहरण न्याय से इनकार के रूप में सार्वजनिक बहस का मुद्दा रहे हैं। क्या ऐसी याचिकाओं को स्वीकार/अस्वीकार करने हेतु राष्ट्रपति के लिये कोई समय-सीमा निर्धारित होनी चाहिये? विश्लेषण कीजिये। (2014)

स्रोत: द हिंदू

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