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सामाजिक न्याय

बेटियों की विरासत पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • 22 Jan 2022
  • 12 min read

प्रिलिम्स के लिये:

अधिकारों से संबंधित मुद्दे, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, सर्वोच्च न्यायालय, मिताक्षरा कानून, दयाभाग कानून

मेन्स के लिये:

विरासत में बेटियों की हिस्सेदारी से संबंधित भारतीय कानून, हिंदू कानून, भारत में महिलाओं से संबंधित मुद्दे।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने फैसला सुनाया है कि वर्ष 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (HSA) के तहत कानून के लागू होने से पहले की संपत्तियों पर भी बेटियों को समान अधिकार होगा।

  • इस निर्णय में एक ऐसे व्यक्ति की संपत्ति का विवाद शामिल था, जिसकी वर्ष 1949 में मृत्यु हो गई थी और वह अपने पीछे एक बेटी छोड़ गया था, जिसकी 1967 में मृत्यु हो गई थी।
  • इससे पूर्व ट्रायल कोर्ट ने माना था कि चूँकि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने से पहले उस महिला की मृत्यु हो गई थी और याचिकाकर्त्ता और उसकी अन्य बहनें उस महिला की मृत्यु की तारीख को वारिस नहीं बनी थीं और इसलिये संपत्ति में हिस्से के विभाजन की हकदार नहीं थीं। बाद में उच्च न्यायालय ने भी निचली अदालत के खिलाफ अपील खारिज कर दी।

प्रमुख बिंदु

  • विरासत में बेटियों की हिस्सेदारी: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि एक ऐसे व्यक्ति की संपत्ति, जो बिना वसीयत किये मर गया और उसकी केवल एक बेटी हो तो उसकी बेटी को संपत्ति में समग्र अधिकार प्राप्त होगा, न कि परिवार के किसी अन्य सदस्य को।
  • प्राचीन ग्रंथ और न्यायिक घोषणाएँ: सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न प्राचीन ग्रंथों (स्मृति), प्रसिद्ध विद्वानों की टिप्पणियों और यहाँ तक ​​कि न्यायिक घोषणाओं का उल्लेख किया है, जिन्होंने कई महिला उत्तराधिकारी के रूप में, पत्नियों और बेटी के अधिकारों को मान्यता दी है।
    • विरासत पर प्रथागत हिंदू कानून के स्रोतों का उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मिताक्षरा कानून’ पर चर्चा की।
    • SC ने श्यामा चरण सरकार विद्या भूषण द्वारा हिंदू कानून के एक डाइजेस्ट, ‘व्यवस्था चंद्रिका’ को भी देखा जिसमें 'वृहस्पति' को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि 'पत्नी को उसके पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी घोषित किया जाता है तथा उसकीअनुपस्थिति में एक पुत्र के रूप में बेटी उसके वंश को आगे बढ़ाती हैं।
    • SC ने यह भी नोट किया कि पुस्तक में मनु द्वारा कहा गया है कि "एक आदमी का बेटा उसका उतराधिकारी होता है और बेटी बेटे के बराबर होती है। फिर कोई अन्य उसकी संपत्ति का वारिस कैसे बन सकता है, उसके जीवित रहने के बावजूद, जो कि जैसा है, वैसा ही है”. 
  • पुराना कानून: एक विधवा या बेटी का स्व-अर्जित संपत्ति का उत्तराधिकार या एक हिंदू पुरुष की सहदायिक संपत्ति के विभाजन में प्राप्त हिस्से का अधिकार पुराने प्रथागत हिंदू कानून के तहत अच्छी तरह से मान्यता प्राप्त है।
    • यदि एक मृत हिंदू पुरुष की निर्वसीयत संपत्ति एक स्व-अर्जित संपत्ति है या एक सहदायिक या पारिवारिक संपत्ति के विभाजन में प्राप्त संपत्ति है तो वह उत्तरजीविता द्वारा हस्तांतरित होगी न कि उत्तरजीविता द्वारा, और ऐसे हिंदू पुरुष की बेटी हकदार होगी कि इस तरह की संपत्ति में उसे अन्य की अपेक्षा वरीयता प्राप्त हो।
  • महिला की मृत्यु के बाद संपत्ति: न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर एक हिंदू महिला बिना किसी उत्तराधिकारी के मर जाती है, तो उसके पिता या माता से विरासत में मिली संपत्ति उसके पिता के उत्तराधिकारियों के पास जाएगी, जबकि उसके पति से प्राप्त संपत्ति ससुर के वारिसों के पास जाएंगी।

भारत में भूमि अधिकार और महिलाएँ

  • संबंधित डेटा: भारत में संपत्ति बड़े पैमाने पर पुरुष उत्तराधिकारियों को हस्तांतरित करने के इच्छुक हैं। यह बदले में महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता और उद्यमिता से वंचित करता है। 
  • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के अनुसार, 43% महिला उत्तरदाताओं ने बताया कि उनके पास अकेले या संयुक्त रूप से घर/भूमि है, लेकिन वास्तव में संपत्ति तक पहुँच और महिलाओं की नियंत्रण क्षमता के बारे में संदेह बना हुआ है।
    • वास्तव में, मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के 2020 के एक वर्किंग पेपर में ग्रामीण जमींदार घरों में बमुश्किल 16% महिलाओं के पास अपनी ज़मीन है।
  • पितृसत्ता: गहरे पितृसत्तात्मक रीति-रिवाजों और ग्रामीण-कृषि व्यवस्था में संपत्ति, जिसे धन के प्राथमिक स्रोत के रूप में देखा जाता है, का अधिकार काफी हद तक पुरुष उत्तराधिकारियों को दिया जाता है।
  • राज्य कानून: कृषि भूमि के लिये विरासत कानूनों में केंद्रीय व्यक्तिगत कानूनों और राज्य कानूनों में परस्पर विरोध है।
    • इस संबंध में, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश (यूपी) और यहाँ तक कि दिल्ली जैसे राज्यों में प्रतिगामी उत्तराधिकार प्रावधान हैं।
    • वास्तव में हरियाणा ने दो बार HSA, 1956 के माध्यम से महिलाओं को दिये गए प्रगतिशील अधिकारों को छीनने की कोशिश की, जबकि यूपी में वर्ष 2016 से विवाहित बेटियों को प्राथमिक उत्तराधिकारी नहीं माना जाता है।
  • ज़मीनी स्तर पर विरोधः कई उत्तर भारतीय राज्यों में महिलाओं के लिये ज़मीन के पंजीकरण का जमीनी स्तर पर विरोध भी हो रहा है. इस प्रकार महिला सशक्तीकरण और संपत्ति का अधिकार एक अधूरी परियोजना बनी हुई है।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956:

  • परिचय:
    • हिंदू कानून की मिताक्षरा धारा को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के रूप में संहिताबद्ध किया गया, संपत्ति के वारिस एवं उत्तराधिकार को इसी अधिनियम के तहत प्रबंधित किया गया, जिसने कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में केवल पुरुषों को मान्यता दी।
    • यह उन सभी पर लागू होता है जो धर्म से मुस्लिम, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं हैं। बौद्ध, सिख, जैन और आर्य समाज, ब्रह्म समाज के अनुयायियों को भी इस कानून के तहत हिंदू माना गया हैं।
    • एक अविभाजित हिंदू परिवार में कई पीढ़ियों के संयुक्त रूप से कई कानूनी उत्तराधिकारी मौजूद हो सकते हैं। कानूनी उत्तराधिकारी परिवार की संपत्ति की संयुक्त रूप से देख-रेख करते हैं।
  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम [Hindu Succession (Amendment) Act], 2005:
    • 1956 के अधिनियम को सितंबर 2005 में संशोधित किया गया और वर्ष 2005 से संपत्ति विभाजन के मामले में महिलाओं को सह्दायक/कॉपर्सेंनर के रूप में मान्यता दी गई।
    • अधिनियम की धारा 6 में संशोधन करते हुए एक कॉपर्सेंनर की पुत्री को भी जन्म से ही पुत्र के समान कॉपर्सेंनर माना गया।
    • इस संशोधन के तहत पुत्री को भी पुत्र के समान अधिकार और देनदारियाँ दी गई।
    • यह कानून पैतृक संपत्ति और व्यक्तिगत संपत्ति में उत्तराधिकार के नियम को लागू करता है, जहाँ उत्तराधिकार को कानून के अनुसार लागू किया जाता है, न कि एक इच्छा-पत्र के माध्यम से।

हिंदू कानून से संबंधित विधियाँ/नियम

मिताक्षरा कानून 

दयाभागा कानून 

मिताक्षरा पद की उत्पत्ति याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित एक टीका के नाम से हुई है।

दयाभाग पद जिमुतवाहन द्वारा लिखी गई, समान नाम की पुस्तक से लिया गया है।

भारत के सभी भागों में इसका प्रभाव देखने को मिलता है और यह बनारस, मिथिला, महाराष्ट्र एवं द्रविड़ शैली में उप-विभाजित है।

बंगाल और असम में इसका प्रभाव देखने को मिलता है। 

जन्म से ही संयुक्त परिवार की पैतृक संपत्ति में पुत्र की हिस्सेदारी होती है।

पुत्र का संपत्ति पर जन्म से कोई स्वामित्व/अधिकार नहीं होता है, परंतु वह अपने पिता की मृत्यु के बाद स्वतः ही इस अधिकार को प्राप्त कर लेता है।

एक पिता के संपूर्ण जीवनकाल के दौरान परिवार के सभी सदस्य को कॉपर्सनरी का अधिकार प्राप्त होता है।

पिता के जीवनकाल में पुत्र को कॉपर्सनर का अधिकार प्राप्त नहीं होता है।

इसमें कॉपर्सनर का भाग परिभाषित नहीं है और इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है।

प्रत्येक कॉपर्सनर के हिस्से को परिभाषित किया गया है और इसे समाप्त किया जा सकता है।

पत्नी बँटवारे की मांग नहीं कर सकती है लेकिन उसे अपने पति और पुत्रों के बीच किसी भी बँटवारे में हिस्सेदारी का अधिकार प्राप्त है।

यहाँ महिलाओं के लिये समान अधिकार मौजूद नहीं है क्योंकि पुत्र बँटवारे की मांग नहीं कर सकता हैं और यहाँ पिता ही पूर्ण मालिक होता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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