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भारतीय राजनीति

प्रतिबंधित विधायकों की याचिका पर उच्चतम न्यायालय का नोटिस

  • 11 Jan 2021
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने केंद्र और भारतीय चुनाव आयोग (EC) को 10वीं अनुसूची के तहत अयोग्य करार दिये गए विधायकों को सदन के बचे हुए कार्यकाल के दौरान उपचुनाव लड़ने से प्रतिबंधित करने से संबंधित याचिका पर जवाब देने को कहा है।

प्रमुख बिंदु

पृष्ठभूमि:

  • मणिपुर, मध्य प्रदेश, कर्नाटक जैसे कई राज्यों की हालिया राजनीतिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में यह पाया गया है कि विधानसभा के सदस्य अपनी सदस्यता से त्यागपत्र दे देते हैं जिसकी वजह से सरकार अल्पमत की स्थिति में आ जाती है और उसका पतन हो जाता है। इसके पश्चात् ये विधायक प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक पार्टी द्वारा गठित नई सरकार में फिर से मंत्री बन जाते हैं।

याचिकाकर्त्ता द्वारा दिये गए तर्क:

  • दलील में कहा गया है कि यदि 10वीं अनुसूची के तहत एक बार किसी सदन के सदस्य को अयोग्य घोषित किया जाता है तो उस व्यक्ति को  फिर से चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती है(संविधान के अनुच्छेद 172 के अनुसार)।
  • यदि उसे संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि या उसके अधीन निरर्हित कर दिया जाता है तो सदन को उस अयोग्य सदस्य को संविधान के अनुच्छेद 191 (1) (e) के तहत निरर्हित घोषित करना होगा और उस सदस्य को (जिसके लिये उसे चुना गया था) फिर से चुने जाने से भी वंचित होना पड़ेगा ।

संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

10वीं अनुसूची का पैरा 2:

  • यह सूचित करता है कि विधायकों को "सदन का सदस्य होने के लिये अयोग्य ठहराया गया है।"

अनुच्छेद 172:

  • यह सदन के 5 वर्षों के कार्यकाल के साथ सदन की सदस्यता का प्रावधान करता है।

अनुच्छेद 191 (1) (e):

  • 10वीं अनुसूची के तहत अयोग्य घोषित होने पर व्यक्ति को किसी राज्य की विधानसभा या विधानपरिषद की सदस्यता के लिये अयोग्य घोषित किया जाएगा।

10वीं अनुसूची:

  • संविधान में 10वीं अनुसूची को वर्ष 1985 में 52वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था।
  • यह उस प्रक्रिया को पूरा करता है जिसके तहत विधायकों को विधायिका के पीठासीन अधिकारी द्वारा दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराया जा सकता है।
  • यह कानून संसद और राज्य विधानसभाओं दोनों पर लागू होता है।

निरर्हता:

  • दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को निम्नलिखित स्थितियों अयोग्य घोषित किया जा सकता है:
    • यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
    • यदि कोई निर्वाचित निर्दलीय सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
    • यदि किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है।
    • यदि कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।
    • छह महीने की समाप्ति के बाद यदि कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • दल-बदल अधिनियम के अपवाद
    • यदि कोई व्यक्ति स्पीकर या अध्यक्ष के रूप में चुना जाता है तो वह अपनी पार्टी से इस्तीफा दे सकता है और जब वह पद छोड़ता है तो फिर से पार्टी में शामिल हो सकता है। इस तरह के मामले में उसे अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।
    • यदि किसी पार्टी के दो-तिहाई विधायकों ने विलय के पक्ष में मतदान किया है तो उस पार्टी का विलय किसी दूसरी पार्टी में किया जा सकता है।

पीठासीन अधिकारी का निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन है:

  • वर्ष 1993 के किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू वाद में उच्चतम न्यायालय ने फैसला देते हुए कहा था कि विधानसभा/लोकसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा। विधानसभा/लोकसभा अध्यक्ष के निर्णय का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है। 
  • न्यायालय ने माना कि 10वीं अनुसूची के प्रावधान संसद और राज्य विधानसभाओं में निर्वाचित सदस्यों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं करते हैं। साथ ही ये संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन भी नहीं करते।

पीठासीन अधिकारी द्वारा निर्णय हेतु समयसीमा:

  • कानून के अनुसार, ऐसी कोई समयसीमा नहीं है जिसके भीतर पीठासीन अधिकारियों द्वारा अयोग्यता से संबंधित याचिका पर निर्णय लेना अनिवार्य हो।
  • अधिकारी के निर्णय लेने के पश्चात् ही न्यायालय भी इस मामले में हस्तक्षेप कर सकता है, इसलिये याचिकाकर्त्ता के समक्ष एकमात्र विकल्प यह होता है कि वह निर्णय होने तक प्रतीक्षा करे।
  • ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहाँ न्यायालयों ने इस तरह की याचिकाओं में अनावश्यक देरी पर चिंता व्यक्त की है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में निर्णय लिया कि जब तक किसी प्रकार की "असाधारण परिस्थितियाँ" विद्यमान न हों, लोकसभा अध्यक्ष को 10वीं अनुसूची के तहत अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने के भीतर निर्णय ले लेना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू

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