प्रवर एवं अन्य संसदीय समितियों की भूमिकाएँ एवं सीमाएँ | 21 Sep 2020
प्रिलिम्स के लियेप्रवर समिति, विभागीय स्थायी समिति, संयुक्त संसदीय समिति मेन्स के लियेसंसदीय समिति की भूमिका, संसदीय समितियों का वर्गीकरण, समिति द्वारा विधेयक का परीक्षण |
चर्चा में क्यों?
दो महत्त्वपूर्ण कृषि विधेयकों को राज्यसभा की एक प्रवर समिति को भेजने की विपक्ष की माँगों को अस्वीकार करते हुए सरकार ने राज्यसभा में इन दोनों विधेयकों को पारित किया है। विधेयकों की संसदीय समिति द्वारा जाँच नहीं किये जाने के कारण विपक्ष द्वारा इसका विरोध किया गया है।
संसदीय समितियों के बारे में
- संसद के कार्य अधिक विविध, जटिल एवं वृहद् हैं। संसद के पास पर्याप्त समय और विशेषज्ञता के अभाव के कारण संसदीय समितियाँ संसद के कर्तव्यों के निर्वहन में सहायता प्रदान करती हैं।
- भारत के संविधान में ऐसी समितियों का अलग-अलग स्थानों और संदर्भों में उल्लेख आता है, लेकिन इन समितियों के गठन, कार्यकाल तथा कार्यों आदि के संबंध में कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं किया गया है। इन सभी मामलों के बारे में संसद के दोनों सदनों के नियम ही प्रभावी होते हैं।
- एक संसदीय समिति वह समिति है:
1. जो सदन द्वारा नियुक्त/निर्वाचित होती है अथवा जिसे लोकसभा अध्यक्ष/सभापति नामित करते हैं।
2. जो लोकसभा अध्यक्ष/सभापति के निर्देशानुसार कार्य करती है।
3. जो अपनी रिपोर्ट सदन को अथवा लोकसभा अध्यक्ष/सभापति को सौंपती है।
4. जिसका एक सचिवालय होता है, जिसकी व्यवस्था लोकसभा/राज्यसभा सचिवालय करता है। - संसदीय समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-स्थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ।
विधेयक को पारित करने में संसदीय समिति की भूमिका
- संसद में दो तरीकों से विधायी प्रस्तावों (विधेयकों) की जाँच की जाती है-
- पहला, दोनों सदनों के पटल पर चर्चा करके विधेयकों का परीक्षण किया जाता है। विधेयकों पर बहस करने में लगने वाला समय भिन्न हो सकता है। चूँकि संसद की बैठक वर्ष में केवल 70-80 दिनों के लिये ही होती है, इसलिये सदन के पटल पर प्रत्येक विधेयक पर विस्तार से चर्चा करने के लिये पर्याप्त समय उपलब्ध नहीं हो पाता है।
- दूसरा, विधेयक को एक संसदीय समिति के पास भेजा जाता है। वर्ष 1885 में अमेरिका का राष्ट्रपति बनने से पहले वुडरो विल्सन ने कहा था कि “यह कहना गलत नहीं होगा कि जब कॉन्ग्रेस सत्र में होती है तो वह सार्वजनिक प्रदर्शन कर रही होती है और जब वह समिति कक्ष में होती है तो वह काम कर रही होती है।” उल्लेखनीय है कि किसी विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजा जाना अनिवार्य नहीं है।
संसदीय समितियों का वर्गीकरण
- संसदीय समितियाँ कई प्रकार की होती हैं, जिन्हें उनके कार्य, सदस्यता और कार्यकाल की अवधि के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
- विधेयक, बजट और मंत्रालयों की नीतियों की जाँच करने वाली समितियों को विभागीय स्थायी समितियाँ कहा जाता है। संसद में इस प्रकार की 24 समितियाँ हैं। प्रत्येक समिति में 31 सदस्य (21 लोकसभा और 10 राज्यसभा) होते हैं।
- विभागीय स्थायी समितियों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है, जिसके पश्चात् उनका पुनर्गठन किया जाता है। लोकसभा की अवधि के दौरान उनका कार्य जारी रहता है। कोई भी मंत्री इन समितियों का सदस्य नहीं बन सकता है। वित्त, रक्षा, गृह आदि से संबंधित प्रमुख समितियों की अध्यक्षता आमतौर पर विपक्षी सांसदों द्वारा की जाती है।
- दोनों सदनों के सांसदों को सम्मिलित करके एक विशिष्ट उद्देश्य के लिये संयुक्त संसदीय समितियाँ गठित की जाती हैं। वर्ष 2011 में टेलीकॉम लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के मुद्दे पर कॉन्ग्रेस के सांसद पी.सी. चाको की अध्यक्षता में संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जाँच की गई थी। वर्ष 2016 में नागरिकता (संशोधन) विधेयक को भाजपा सांसद राजेंद्र अग्रवाल की अध्यक्षता में एक संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था।
- किसी एक विशेष विधेयक की जाँच के लिये प्रवर समिति (Select Committee) का गठन किया जाता है। इसकी सदस्यता किसी एक सदन के सांसदों तक ही सीमित रहती है। पिछले वर्ष राज्यसभा ने सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2019 को सदन के विभिन्न दलों के 23 सांसदों की प्रवर समिति को संदर्भित किया था। इस समिति की अध्यक्षता भाजपा सांसद भूपेन्द्र यादव कर रहे थे।
- चूँकि संयुक्त संसदीय समितियों और प्रवर समितियों का गठन एक विशिष्ट उद्देश्य के लिये किया जाता है, इसलिये इनके द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात् इन्हें भंग कर दिया जाता है। इन दोनों प्रकार की समितियों की अध्यक्षता सत्तारूढ़ दल के सांसद करते हैं।
समिति द्वारा विधेयक की जाँच
- विधेयकों को स्वचालित रूप से संसदीय समितियों द्वारा परीक्षण के लिये नहीं भेजा जाता है। प्रमुख रूप से तीन रास्ते हैं, जिनसे होकर कोई विधेयक एक समिति तक पहुँच सकता है।
- पहला, जब मंत्री सदन में प्रस्ताव रखता है कि उसके विधेयक की सदन की प्रवर समिति या दोनों सदनों की संयुक्त समिति द्वारा जाँच की जाए। पिछले वर्ष इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना एवं संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद ने लोकसभा में एक प्रस्ताव पारित कर पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल को एक संयुक्त समिति को संदर्भित किया था।
- दूसरा, यदि मंत्री उपर्युक्त प्रकार का कोई प्रस्ताव नहीं रखता है तो किसी विधेयक को विभागीय स्थायी समिति के पास भेजना सदन के पीठासीन अधिकारी पर निर्भर करता है। पिछली लोकसभा के कार्यकाल के दौरान राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू ने विभागीय स्थायी समितियों के पास कुल 8 विधेयक भेजे थे।
- तीसरा और अंतिम, एक सदन द्वारा पारित विधेयक को दूसरे सदन द्वारा अपनी प्रवर समिति को भेजा जा सकता है। वर्ष 2011 में लोकसभा द्वारा पारित लोकपाल विधेयक को राज्य सभा ने अपनी प्रवर समिति को संदर्भित किया था। पिछली लोकसभा के कार्यकाल के दौरान कई विधेयकों को राज्यसभा की प्रवर समितियों को संदर्भित किया गया था।
- किसी भी विधेयक को संसदीय समिति के पास भेजने के दो परिणाम निकलकर सामने आते हैं-
- पहला, समिति विधेयक का विस्तृत रुप से परीक्षण करती है। यह विशेषज्ञों, हितधारकों और नागरिकों से टिप्पणियों और सुझावों को आमंत्रित करती है। सरकार द्वारा भी अपना दृष्टिकोण समिति के सामने प्रस्तुत किया जाता है। यह विधेयक को मज़बूत बनाने के लिये सुझावों के रूप में एक रिपोर्ट प्रस्तुत करती है।
- जब समिति किसी विधेयक पर विचार-विमर्श कर रही होती है तो सदन में विधेयक की प्रगति रूक जाती है। समिति द्वारा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद ही यह संसद में प्रगति कर सकता है। आमतौर पर संसदीय समितियों को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी होती है, लेकिन कभी-कभी इसमें अधिक समय लग सकता है।
रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात्
- संसदीय समिति द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट अनुशंसात्मक प्रकृति की होती है। सरकार समिति की सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है। अधिकतर मामलों में सरकार समितियों द्वारा दिये गए सुझावों को शामिल कर लेती है।
- प्रवर समितियों और संयुक्त संसदीय समितियों से एक अतिरिक्त लाभ भी है। रिपोर्ट में वे विधेयक के अपने संस्करण को भी शामिल कर सकते हैं, जिससे उस विधेयक के प्रभारी मंत्री समिति के संस्करण वाले विधेयक पर चर्चा कर उसे सदन में पारित करवा सकते हैं।
आगे की राह
- वर्तमान लोकसभा में 17 विधेयकों को संसदीय समितियों को संदर्भित किया गया है। 16वीं लोकसभा (2014-19) के कार्यकाल के दौरान 25% विधेयक समितियों को संदर्भित किये गए थे, जो 15वीं और 14वीं लोकसभा के दौरान क्रमशः 71% और 60% से बहुत कम है।
- प्रत्येक विधेयक को पारित करने से पूर्व विस्तृत और उचित विचार-विमर्श किया जाना चाहिये। संसद के पास कार्यों की अधिकता और सीमित समय की उपलब्धता के कारण संसदीय समितियों द्वारा विधेयकों की जाँच की जानी चाहिये।