भारतीय अर्थव्यवस्था
रिवर्स रेपो सामान्यीकरण
- 01 Feb 2022
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चर्चा में क्यों?
हाल की एक रिपोर्ट में भारतीय स्टेट बैंक ने कहा है कि भारत में रिवर्स रेपो सामान्यीकरण के लिये स्थितियाँ काफी अनुकूल हैं।
- पुनर्खरीद समझौता (रेपो) और रिवर्स रेपो समझौता भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करने हेतु उपयोग किये जाने वाले दो प्रमुख उपकरण हैं।
- मुद्रा आपूर्ति को नियंत्रित करने के लिये केंद्रीय बैंक द्वारा उपयोग किये जाने वाले उपकरण मात्रात्मक या गुणात्मक हो सकते हैं।
मात्रात्मक उपकरण |
आधार |
गुणात्मक उपकरण |
ये मौद्रिक नीति के ऐसे उपकरण हैं जो अर्थव्यवस्था में धन/ऋण की समग्र आपूर्ति को प्रभावित करते हैं। |
अर्थ |
इन उपकरणों का उपयोग ऋण को विनियमित करने के लिये किया जाता है। |
नियंत्रण के पारंपरिक तरीके |
वैकल्पिक नाम |
नियंत्रण के चयनात्मक तरीके |
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उपकरण |
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रेपो और रिवर्स रेपो दर क्या है?
- परिचय
- रेपो दर वह दर है जिस पर किसी देश का केंद्रीय बैंक (भारत के मामले में भारतीय रिज़र्व बैंक) किसी भी तरह की धनराशि की कमी होने पर वाणिज्यिक बैंकों को धन देता है। इस प्रक्रिया में केंद्रीय बैंक प्रतिभूति खरीदता है।
- रिवर्स रेपो वह ब्याज दर है जिस दर पर रिज़र्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों को भुगतान करता है जब वे अपनी अतिरिक्त ‘तरलता’ (पैसा) रिज़र्व बैंक के पास रखते हैं। इस प्रकार रिवर्स रेपो दर, रेपो के ठीक विपरीत होती है।
- महत्त्व:
- सामान्य परिस्थितियों में जब अर्थव्यवस्था स्वस्थ गति से बढ़ रही होती है, तो रेपो दर अर्थव्यवस्था में बेंचमार्क ब्याज दर बन जाती है।
- ऐसा इसलिये है क्योंकि यह सबसे कम ब्याज दर होती है जिस पर धन उधार लिया जा सकता है। जैसे कि रेपो दर अर्थव्यवस्था में अन्य सभी ब्याज दरों के लिये न्यूनतम ब्याज दर है, चाहे वह कार ऋण की दर हो या गृह ऋण या सावधि जमा आदि पर अर्जित ब्याज दर।
- जब आरबीआई बाज़ार में अधिक-से-अधिक तरलता उत्पन्न करता है फिर भी कोई नया ऋण लेने वाला नहीं होता है, बैंक भी उधार देने के इच्छुक नहीं होते हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था में नए ऋणों की कोई वास्तविक मांग नहीं है।
- ऐसी स्थिति में रेपो रेट को रिवर्स रेपो रेट में स्थानांतरित किया जाता है क्योंकि बैंकों को तब आरबीआई से पैसा उधार लेने में कोई दिलचस्पी नहीं होती है।
- वे अपनी अतिरिक्त तरलता को आरबीआई के पास रखने में अधिक रुचि रखते हैं और इसी तरह रिवर्स रेपो अर्थव्यवस्था में वास्तविक बेंचमार्क ब्याज दर बन जाता है।
रिवर्स रेपो सामान्यीकरण:
- परिचय:
- इसका मतलब है कि रिवर्स रेपो रेट बढ़ेगा यानी एक या दो चरणों में रिवर्स रेपो रेट को बढ़ाया जाएगा।
- बढ़ती मुद्रास्फीति के समक्ष दुनिया भर के कई केंद्रीय बैंकों ने या तो ब्याज दरों में वृद्धि की है या संकेत दिया है कि वे जल्द ही ऐसा करेंगे।
- भारत में भी यह उम्मीद की जा रही है कि RBI रेपो रेट बढ़ाएगा लेकिन उससे पहले उम्मीद की जा रही है कि RBI रिवर्स रेपो रेट बढ़ाएगा और दोनों दरों के बीच के अंतर को कम करेगा।
- महत्त्व:
- सामान्यीकरण की प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाना है।
- हालाँकि यह न केवल अतिरिक्त तरलता को कम करेगा बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था में उच्च ब्याज दरों के रूप में उभरकर सामने आएगा।
- इस प्रकार यह उपभोक्ताओं के बीच धन की मांग को कम कर देता है (क्योंकि यह सिर्फ बैंक में पैसा रखने हेतु अधिक उपयुक्त है) और व्यवसायों के लिये नए ऋण उधार लेना महँगा बना देता है।
मौद्रिक नीति सामान्यीकरण क्या है?
- RBI सुचारू कामकाज सुनिश्चित करने के लिये अर्थव्यवस्था की कुल धनराशि में परिवर्तन करता रहता है, जैसे- जब RBI आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देना चाहता है तो वह तथाकथित "लचीली मौद्रिक नीति" अपनाता है।
- ऐसी नीति के दो भाग होते हैं:
- अर्थव्यवस्था में तरलता को बढ़ाना: यह बाज़ार से सरकारी बॉण्ड की खरीद कर ऐसा करता है। जैसे ही आरबीआई इन बॉण्डों की खरीद करता है, यह बॉण्डधारकों को पैसा वापस कर देता है, इस प्रकार अर्थव्यवस्था में अधिक मुद्रा का प्रवाह सुनिश्चित करता है।
- ब्याज दर कम करना: दूसरा जब आरबीआई बैंकों को पैसा उधार देता है तो वह ब्याज दर भी कम कर देता है इस दर को रेपो दर कहा जाता है।
- जिस ब्याज दर पर RBI वाणिज्यिक बैंकों को पैसा उधार देता है, उस दर पर आरबीआई को वाणिज्यिक बैंकों (और शेष बैंकिंग प्रणाली) से उम्मीद होती है कि बदले में बैंक ब्याज दरों को कम करने के लिये प्रेरित होंगे।
- कम ब्याज दर और अधिक तरलता दोनों एक साथ अर्थव्यवस्था में खपत एवं उत्पादन दोनों को बढ़ावा देने में सहायक होती हैं।
- ऐसे में एक उपभोक्ता को बैंक के पास अपना पैसा रखने के लिये कम भुगतान करना होगा जो वर्तमान खपत को प्रोत्साहित करता है। फर्मों और उद्यमियों के लिये एक नया उद्यम शुरू करने हेतु इस स्थिति में पैसे उधार लेना अधिक समझदारी का काम है क्योंकि ब्याज दरें कम होती हैं।
- "कठोर मौद्रिक नीति" (Tight Monetary Policy) एक लचीली मौद्रिक नीति (Loose Monetary Policy) के विपरीत होती है इसमें आरबीआई द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि की जाती है और बॉण्ड की विक्री करके ( सिस्टम से पैसा निकालकर) अर्थव्यवस्था से तरलता को कम किया जाता है।
- जब किसी केंद्रीय बैंक को लगता है कि एक लचीली मौद्रिक नीति प्रतिउत्पादक बनने लगी है (उदाहरण के लिये जब यह उच्च मुद्रास्फीति दर की ओर ले जाती है) तो केंद्रीय बैंक मौद्रिक नीति को कठोर करके "नीति को सामान्य करता’’ (Normalises The Policy) है।