संसाधनों का विस्तार, परंतु रोज़गार नहीं | 09 Oct 2017
चर्चा में क्यों?
मानवीय इतिहास अभी तक के सबसे अधिक परिवर्तनकारी युग के बीच में है, जहाँ तकनीकी उन्नति के माध्यम से असीम भोजन, पानी और ऊर्जा से भरपूर दुनिया को संभव बनाया जा सकता है। हालाँकि, इसमें कोई दोराय नहीं है कि मानव किसी भी गति अथवा मात्रा में किसी भी संसाधन का सृजन करने की क्षमता विकसित कर चुका है, तथापि कृत्रिम बुद्धि एवं रोबोटिक्स जैसी अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों के आगमन के कारण मानव पूंजी की आवश्यकता में निरंतर गिरावट की दर्ज़ की जा रही है। मानव ने प्रौद्योगिकी के बल पर विकास तो किया है, लेकिन विकास की इस राह में मानव पूंजी का महत्त्व कम हो गया है।
- जहाँ एक और बेरोज़गारी की दर में निरंतर वृद्धि हो रही है, वहीं दूसरी ओर मानव समाज संसाधनों को अर्जित करने की राह में और अधिक सक्षम होता जा रहा है।
- इस विसंगति का भविष्य पर क्या असर होगा, यह एक विचारणीय प्रश्न है।
वर्तमान की स्थिति क्या है?
- गौरतलब है कि दुनिया की शीर्ष सात सबसे मूल्यवान कंपनियों में शामिल पाँच उच्च-प्रौद्योगिकी कंपनियों का संचयी बाज़ारी पूंजीकरण लगभग 3 खरब डॉलर का है। तथापि, इन पाँचों में कार्यरत् व्यक्तियों की संख्या मात्र 700,000 ही है।
- यह एक विसंगति ही है कि इतनी अधिक लागत वाली कंपनियों द्वारा मात्र 700,000 लोगों को ही रोज़गार प्रदान किया गया है।
- समस्या केवल इतनी ही नहीं हैं, इसके इतर समस्या यह है कि अपरिहार्य रूप से व्यापक स्तर पर अगली पीढ़ी द्वारा तकनीकों को अपनाए जाने से बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी उत्पन्न होगी।
- वर्तमान समय की प्राथमिक चुनौती मज़दूरी अर्जित करने में सक्षम अवसरों में कमी के साथ-साथ बढ़ती आबादी के बीच प्रचुर मात्रा में उत्पादित संसाधनों का इष्टतम आवंटन करने की है।
- इन सभी प्रवृत्तियों को मद्देनज़र रखते हुए यूरोप में कई प्रगतिशील राजनीतिक संगठनों द्वारा वेतन में कटौती किये बिना काम के घंटों में कमी करने, तीन दिवसीय सप्ताहांत प्रदान करने तथा एक सार्वभौमिक मूल आय की शुरूआत करने के संबंध में कानून बनाए जाने की मांग की जा रही है।
- यदि काम के घंटों में कमी, साझाकरण एवं काम के प्रसार तथा पूरक आय के प्रावधान के तहत नए मॉडलों को तैयार किया जाता है, तो इससे अमीर देशों में (इनकी स्थिर तथा वृद्ध होती जनसंख्या जिनमें से अधिकतर औपचारिक अर्थव्यवस्था से संबद्ध हैं) जीवन के उच्च स्तर के साथ-साथ रोज़गार की उच्च संभावनाओं को आसानी से बनाए रखा जा सकता है।
भारतीय परिदृश्य में विचार करें तो
- हालाँकि, यदि उक्त संदर्भ में भारतीय परिदृश्य में विचार करें तो हम पाएंगे कि भारत जैसे देशों के संबंध में यह पूर्णतया अव्यावहारिक परिकल्पना है। रोज़गार के संदर्भ में भारतीय परिदृश्य पहले से ही असंतुलन की स्थिति में है।
- श्रम ब्यूरो द्वारा प्रदत्त जानकारी के अनुसार, वर्ष 2015 में भारत के आठ श्रमिक क्षेत्रों में केवल 1.35 लाख नौकरियों का सृजन हुआ, जो कि रोज़गार के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली सालाना लगभग 1.5 करोड़ जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है।
- हालाँकि, भारत में अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में संलग्नित कर्मचारियों की संख्या 90% से भी अधिक है।
- वस्तुतः अनौपचारिक क्षेत्र में ढाँचागत परिवर्तनों के माध्यम से इन क्षेत्रों के तहत आधुनिक उपकरणों एवं सर्वोत्तम अभ्यासों को अपनाने हेतु प्रोत्साहित करके तथा व्यावसायिक विस्तार के लिये पूंजी तक पर्याप्त पहुँच सुनिश्चित करके अर्थव्यवस्था में विकास के साथ-साथ रोज़गार बाज़ार को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
- भारत में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढाँचागत क्षमता को विकसित किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिये पूर्ण रूप से केंद्रित सरकारी योजनाओं और व्यवस्थित व्यय के प्रयोग द्वारा एक ऐसा माहौल बनाए जाने की आवश्यकता है जिसके अंतर्गत संभावित बड़े स्तर की परियोजनाओं में निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जा सके।
- जहाँ एक ओर इसके माध्यम से अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाया जा सकेगा वहीं दूसरी ओर निर्माण क्षेत्र जैसे (भारत का दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता, यह अकेला क्षेत्र देश में तकरीबन 44 मिलियन रोज़गार के अवसरों का सृजन करता है) विकल्पों में अधिक-से-अधिक रोज़गार के अवसरों का सृजन किया जा सकेगा।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में बात करें तो प्रौद्योगिकियों के विकास के साथ-साथ नीतिगत पक्ष में भी विकास किये जाने की आवश्यकता है। स्पष्ट रूप से यदि भारत अनिवार्य एवं स्थायी परिसंपत्तियों के निर्माण की दिशा में अधिक बल और प्रभावी परिणाम प्राप्त करना चाहता है तो इसे रोज़गार गारंटी योजनाओं जैसे मनरेगा, के प्रभावी ढंग से रोज़गार के अवसर सृजित करने वाले विकल्पों के संदर्भ में विचार करना चाहिये। हालाँकि, इसके लिये मौजूदा आर्थिक नियोजन के साथ-साथ रोज़गार एवं संसाधनों के आवंटन संबंधी मॉडलों को फिर से परिभाषित किया जाना चाहिये, ताकि उन्हें बदलते प्रौद्योगिकी-त्वरित समय के साथ सही रूप एवं गति से समन्वयित किया जा सके। वस्तुतः यह केवल नीतिगत ज़रूरत नहीं है, बल्कि यह बदलते समय की भी आवश्यकता है।