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धर्म के नाम पर वोट मांगना ‘भ्रष्ट आचरण’ : सर्वोच्च न्यायालय

  • 03 Jan 2017
  • 8 min read

सन्दर्भ

एक ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खंडपीठ ने निर्णय दिया है कि जो नेता धर्म, जाति या भाषा के आधार पर वोट हासिल करने का प्रयास करें उन्हें चुनाव लड़ने के लिये तुरंत अयोग्य घोषित कर दिया जाए| न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मनुष्य और ईश्वर के बीच संबंध किंचित ही एक व्यक्तिगत राय है और इस तरह की गतिविधियों के प्रति राज्य की कोई निष्ठा नहीं होनी चाहिये| चुनावी प्रक्रिया एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है अतः धर्म की इसमें कोई भूमिका नहीं होनी चाहिये| राज्य के साथ धर्म का मिश्रण संवैधानिक रूप से उचित नहीं है|

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • गौरतलब है कि 1987 में विले पार्ले विधानसभा सीट के लिये एक अभियान के दौरान बाल ठाकरे के एक विवादास्पद बयान के बाद सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ एक याचिका दायर की गई थी| याचिकाकर्ता का कहना था कि बाल ठाकरे का बयान जन प्रतिनिधित्व अधिनियम,1951 की धारा 123 (3) के विरुद्ध है| हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता की दलील को खारिज करते हुए यह स्पष्ट किया कि हिंदू धर्म एक जीवन पद्धति है| 
  • वर्ष 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 1995 के निर्णय पर विचार करने से मना कर दिया| साथ ही, कार्यपालिका की आलोचना करते हुए कहा कि उसने चुनावों को धर्म-संबंधी अनैतिकताओं से बचाने के लिये आवश्यक प्रयास नहीं किये हैं| न्यायालय ने कहा कि “चुनाव लड़ने का अधिकार” एक सांविधिक अधिकार है और धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का एक अहम हिस्सा है, अतः न्यायालय इस बात पर विचार करेगा कि, क्या चुनावी प्रक्रिया एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है? और, क्या एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों में धर्म का हस्तक्षेप उचित है?

सर्वोच्च न्यायालय का तत्कालीन निर्णय

  • सर्वोच्च न्यायालय की सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने अपने एक अहम फैसले में कहा कि प्रत्याशी या उसके समर्थकों द्वारा  धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के नाम पर वोट मांगना गैर-कानूनी है|  चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष पद्धति है, अतः इसके आधार पर वोट मांगना संविधान की भावना के खिलाफ है| जन प्रतिनिधियों को भी अपने कामकाज धर्मनिरपेक्ष आधार पर ही करने चाहियें| दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में एक याचिका दाखिल की गई थी, इसके तहत यह सवाल उठाया गया था कि धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत भ्रष्ट आचरण है या नहीं?
  • दरअसल, मुद्दा यह था कि जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 (3) के तहत ' उसकी' (his) व्याख्या क्या होगी? वस्तुतः जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत उसके धर्म (his religion) की बात की गई है| न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि 'उसके धर्म’ की व्याख्या किस तरह से की जाए? सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायामूर्ति टी.एस. ठाकुर की अगुवाई वाली खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई के दौरान जन प्रतिनिधित्व कानून के दायरे को व्यापक करते हुए कहा कि हम यह जानना चाहते हैं कि धर्म के नाम पर वोट मांगने के लिये अपील करने के मामले में किसके धर्म की बात की जाती है- उम्मीदवार के धर्म की बात है या जो वोट मांगता है उसके धर्म की बात है या फिर मतदाता के धर्म की बात? सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ‘चुनाव के दौरान धर्म, समुदाय, जाति और भाषा का सन्दर्भ लेकर आग्रह करने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का अर्थ यही लगाया जा सकता है कि उसके धर्म (his religion) के दायरे में मतदाता की सामजिक, लैंगिक और धार्मिक पहचान को भी सम्मिलित कर लिया गया है|

क्यों महत्त्वपूर्ण है यह निर्णय?

  • न्यायपलिका ने यह स्पष्ट कर दिया है कि धर्म का राजनीति में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और जाति, नस्ल, भाषा और धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते| अतः इस फैसले का देश की राजनीति पर तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभाव पड़ेगा| इस फैसले से एक बार यह आश्वस्ति भी हो गई कि देश की सर्वोच्च अदालत संविधान के बुनियादी मूल्यों की रक्षा करने के अपने उत्तरदायित्व के प्रति गंभीर है|
  • गौरतलब है कि सात न्यायाधीशों वाली इस खंडपीठ ने अपना फैसला सर्वसम्मति की बजाय बहुमत के आधार पर लिया है और बहुमत भी सिर्फ एक मत का है| इस संबंध में संविधान पीठ के तीन न्यायाधीशों की राय यह है कि इस फैसले से लोकतंत्र एक आदर्श मात्र  बन कर रह जाएगा क्योंकि फिर राजनीतिक दल और राजनेता वास्तविक सरोकारों को सार्वजनिक और चुनावी चर्चा में नहीं ला सकेंगे|
  • वास्तविकता यह है कि चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम या फिर सिख, सभी धर्म के सहारे चुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं| चुनाव में जाति और भाषा भी अपनी भूमिका निभाते रहे हैं और यह देखा गया है कि चुनाव आते ही ऊँची जातियों से लेकर पिछड़ी और निचली जातियों तक के जाति-आधारित संगठन सक्रिय हो जाते हैं| अतः सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद ऐसी जाति-आधारित राजनीति पर भी अंकुश लगेगा, बशर्ते उसके फैसले पर अमल किया जाए|

निष्कर्ष

  • दरअसल, भारत में धर्मनिरपेक्ष और जातिविहीन राजनीति करना सबसे मुश्किल कार्य  है| हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत में प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को मताधिकार देने का निर्णय लिया था| एक ऐसा देश जहाँ चारों-ओर गरीबी और अशिक्षा फैली हुई है, जहाँ गरीब और अशिक्षित मतदाता के पास चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों को परखने की कोई कसौटी नहीं है और जहाँ जाति, समुदाय, क्षेत्र और धर्म की पारंपरिक निष्ठाओं के आधार पर वोट दिए जाते हों; वहाँ सर्वोच्च न्यायालय का यह  फैसला अपने आप में एक ऐतिहासिक निर्णय है|
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