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भारतीय राजव्यवस्था

न्यायाधीशों द्वारा बहिष्कार

  • 24 Jun 2021
  • 6 min read

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, रंजीत ठाकुर बनाम भारत संघ (1987)

मेन्स के लिये:

न्यायाधीशों द्वारा मामलों के बहिष्कार से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) के दो न्यायाधीशों ने पश्चिम बंगाल से संबंधित मामलों की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है।

प्रमुख बिंदु:

बहिष्कार:

  • यह पीठासीन न्यायालय के अधिकारी या प्रशासनिक अधिकारी के हितों के टकराव के कारण कानूनी कार्यवाही जैसी आधिकारिक कार्रवाई में भाग लेने से अनुपस्थित रहने से संबंधित है।

बहिष्कार का कारण:

  • जब हितों का टकराव होता है तो एक न्यायाधीश मामले की सुनवाई से पीछे हट सकता है ताकि यह धारणा पैदा न हो कि उसने मामले का निर्णय करते समय पक्षपात किया है।
  • हितों का टकराव कई तरह से हो सकता है, जैसे:
    • मामले में शामिल किसी पक्ष के साथ पूर्व या व्यक्तिगत संबंध होना।
    • एक मामले में शामिल पक्षों में से एक के लिये पेश किया गया।
    • वकीलों या गैर-वकीलों के साथ एकतरफा संचार।
    • एक उच्च न्यायालय (HC) के फैसले के खिलाफ SC में अपील दायर की जाती है जो SC के न्यायाधीश द्वारा HC में होने पर दी जा सकती है।
    • एक कंपनी के मामले में जिसमें वह शेयर रखता है और उसने अपने हित का खुलासा नहीं किया है और इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
  • यह प्रथा कानून की उचित प्रक्रिया के मुख्य सिद्धांत से उपजी है कि कोई भी अपने ही मामले में न्यायाधीश नहीं हो सकता है।
    • कोई भी हित या हितों का टकराव किसी मामले से हटने का आधार होगा क्योंकि निष्पक्ष कार्य करना न्यायाधीश का कर्तव्य है।

निर्णय और अस्वीकृति की प्रक्रिया:

  • किसी भी संभावित हितों के टकराव का खुलासा करने के लिये न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर होने के कारण आमतौर पर खुद को अलग करने का निर्णय न्यायाधीश द्वारा लिया जाता है।
    • कुछ न्यायाधीश मौखिक रूप से मामले में शामिल वकीलों को अपने अलग होने के कारणों से अवगत कराते हैं, कई नहीं। कुछ अपने क्रम में कारणों की व्याख्या करते हैं।
  • कुछ परिस्थितियों या मामलों में वकील या पक्ष इसे न्यायाधीश के सामने लाते हैं। एक बार अलग होने का अनुरोध किये जाने के बाद न्यायाधीश के पास इसे वापस लेने या न लेने का अधिकार होता है।
    • हालाँकि ऐसे कुछ उदाहरण हैं जहाँ न्यायाधीशों ने विरोध नहीं देखा, भले ही वे खुद को अलग कर लेते हों, लेकिन केवल इसलिये कि इस तरह की आशंका जताई गई थी, ऐसे कई मामले भी हैं जहाँ न्यायाधीशों ने किसी मामले से हटने से इनकार कर दिया है।
  • यदि कोई न्यायाधीश इनकार करता है तो मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष एक नई पीठ को आवंटित करने के लिये सूचीबद्ध किया जाता है।

बहिष्कार हेतु नियम:

  • पुनर्मूल्यांकन को नियंत्रित करने वाले कोई औपचारिक नियम नहीं हैं, हालाँकि SC के कई निर्णयों में इस मुद्दे पर बात की गई है।
    • रंजीत ठाकुर बनाम भारत संघ (1987) मामले में SC ने माना कि यह दूसरे पक्ष के मन में  पक्षपात की संभावना की आशंका के प्रति तर्कों को बल प्रदान करती है।
    • न्यायालय को अपने सामने पक्ष के तर्क को देखना चाहिये और तय करना चाहिये कि वह पक्षपाती है या नहीं।

चिंताएँ:

  • न्यायिक स्वतंत्रता को कम आँकना:
    • यह वादियों को अपनी पसंद की बेंच चुनने की अनुमति देता है, जो न्यायिक निष्पक्षता को कम करता है।
    • साथ ही इन मामलों में अलग होने का उद्देश्य न्यायाधीशों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता दोनों को कमज़ोर करता है।
  • विभिन्न व्याख्याएँ:
    • चूँकि यह निर्धारित करने के लिये कोई नियम नहीं हैं कि न्यायाधीश इन मामलों में कब खुद को अलग कर सकते हैं, एक ही स्थिति की अलग-अलग व्याख्याएँ हैं।
  • प्रक्रिया में देरी:
    • कुछ कार्य मुद्दों को उलझाने या कार्यवाही में बाधा डालने और देरी करने के इरादे से या किसी अन्य तरीके से न्याय के प्रारूप में बाधा डालने या इसे बाधित करने के इरादे से भी किये जाते हैं।

आगे की राह:

  • न्याय में परिवर्तन के एक उपकरण के रूप में तथा वादी की पसंद की बेंच चुनने के साधन के रूप में और न्यायिक कार्य से बचने हेतु एक साधन के रूप में पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था का उपयोग नहीं किया जाना चाहिये।
  • न्यायिक अधिकारियों को हर तरह के दबाव का विरोध करना चाहिये, चाहे वह कहीं से भी हो और अगर वे विचलित हो जाते हैं तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ- साथ संविधान भी कमज़ोर हो जाएगा।
  • इसलिये एक नियम जो न्यायाधीशों की ओर से अलग होने की प्रक्रिया को निर्धारित करता है, जल्द-से-जल्द बनाया जाना चाहिये।

स्रोत- द हिंदू

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