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सामाजिक न्याय

तीव्र शहरीकरण और स्लम क्षेत्रों की दुर्दशा

  • 25 Aug 2021
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये

शहरीकरण और स्लम क्षेत्र

मेन्स के लिये

स्लम निवासियों पर कोविड-19 का प्रभाव, स्लम क्षेत्रों से संबंधित चुनातियाँ

चर्चा में क्यों?

भारत में तीव्रता से बढ़ता शहरीकरण एक अपरिहार्य चुनौती बन गया है। सेवा क्षेत्र के विकास के साथ शहरों पर जनसंख्या का दबाव और अधिक बढ़ता जा रहा है।

  • दिल्ली दुनिया का छठा सबसे बड़ा महानगर है, इसके बावजूद यहाँ एक-तिहाई आवास स्लम क्षेत्र का हिस्सा हैं, जिनके पास कोई बुनियादी संसाधन भी उपलब्ध नहीं हैं।

स्लम क्षेत्र

  • स्लम क्षेत्र का आशय सार्वजनिक भूमि पर अवैध शहरी बस्तियों से है और आमतौर पर यह एक निश्चित अवधि के दौरान निरंतर एवं अनियमित तरीके से विकसित होता है। स्लम क्षेत्रों को शहरीकरण का एक अभिन्न अंग माना जाता है और शहरी क्षेत्र में समग्र सामाजिक-आर्थिक नीतियों एवं योजनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाता है।
  • ‘स्लम क्षेत्र’ को प्रायः ‘अराजक रूप से अधिग्रहीत, अव्यवस्थित रूप से विकसित और आमतौर पर उपेक्षित क्षेत्र के रूप में वर्णित किया जा सकता है, जहाँ काफी अधिक आबादी निवास करती है।
  • ‘स्लम क्षेत्र’ के अस्तित्व और तीव्र विकास को एक सामान्य शहरी घटना के रूप में देखा जाता है, जो कि दुनिया भर में प्रचलित है।

प्रमुख बिंदु

शहरीकरण 

  • शहरीकरण का आशय ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या के पलायन, ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के अनुपात में कमी और इस परिवर्तन को अपनाने हेतु समाज के तरीकों से है।
  • शहरों को प्रायः तीव्र शहरीकरण के प्रतिकूल परिणामों जैसे- अत्यधिक जनसंख्या, आवास और बुनियादी सुविधाओं की कमी, पर्यावरण प्रदूषण, बेरोज़गारी तथा सामाजिक अशांति आदि का सामना करना पड़ता है।
  • विकसित शहर के निर्माण के इस मॉडल में अनियोजित विकास भी शामिल होता है, जो अमीर और गरीब समुदाय के बीच व्याप्त द्वंद्व को मज़बूत करता है।
  • इसके अलावा कोविड-19 महामारी ने शहरों में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले शहरी गरीबों या झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के लिये परेशानी को और गंभीर कर दिया है।

स्लम क्षेत्रों की स्थिति

  • भारत में 13.7 मिलियन स्लम घरों में कुल 65.49 मिलियन लोग निवास करते हैं। लगभग 65% भारतीय शहरों के आसपास झुग्गियाँ और स्लम क्षेत्र मौजूद हैं, जहाँ लोग काफी घनी बस्तियों में रहते हैं।
    • ‘नेशनल सर्विस स्कीम राउंड’ (जुलाई 2012-दिसंबर 2012) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2012 तक दिल्ली में लगभग 6,343 स्लम बस्तियाँ थीं, जिनमें दस लाख से अधिक घर थे, जहाँ दिल्ली की कुल आबादी का 52% हिस्सा निवास करता था।

स्लम निवासियों पर कोविड-19 का प्रभाव

  • वित्तीय असुरक्षा
    • भारत की लगभग 81 प्रतिशत आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में कार्य करती है। संपूर्ण कोविड लॉकडाउन के अचानक लागू होने से झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की आजीविका काफी बुरी तरह प्रभावित हुई है।
    • पूर्व लॉकडाउन के बाद दिल्ली में भारी संख्या में ‘रिवर्स माइग्रेशन’ देखा गया, जब हज़ारों प्रवासी कामगार अपने गृहनगर वापस चले गए। इस दौरान लगभग 70% स्लम निवासी बेरोज़गार हो गए; 10% की मज़दूरी में कटौती हुई और 8% पर इसके अन्य प्रभाव देखे गए।
  • सार्वजनिक वितरण प्रणाली और सामाजिक क्षेत्र योजना कवरेज:
    • यद्यपि ग्रामीण निवासियों का एक बड़ा वर्ग सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के माध्यम से उपलब्ध खाद्यान्न के कारण महामारी से प्रेरित आर्थिक व्यवधान का सामना करने में सक्षम था, किंतु शहरी गरीबों तक ऐसे राशन की पहुँच न्यूनतम थी।
    • सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लेकर भी ग्रामीण गरीबों के बीच शहरी गरीबों की तुलना में बेहतर कवरेज था।
    • शहरी क्षेत्रों में परिवारों के एक बड़े हिस्से के पास राशन कार्ड नहीं है।
  • मौजूदा असमानताएँ:
    • कोविड-19 महामारी ने झुग्गियों और स्लम क्षेत्रों की चुनौतियों को और अधिक गंभीर रूप से उजागर किया है। इन क्षेत्रों में हाथ धोना और शारीरिक दूरी जैसे नियमों का पालन करना असंभव था।
    • दिल्ली में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लगभग 21.8% परिवार सार्वजनिक नल जैसे साझा जल स्रोतों पर निर्भर हैं।
  • पोषण और भूख:
    • पोषण की गुणवत्ता और मात्रा में गिरावट शहरी निवासियों के मामले में अधिक देखी गई और अधिकांश लोगों को भोजन खरीदने तक के लिये पैसे उधार लेने पड़ रहे थे।
    • कुल मिलाकर भूख और खाद्य असुरक्षा का स्तर काफी उच्च बना रहा, जहाँ स्थिति में सुधार की उम्मीद काफी कम थी और रोज़गार के अवसर प्रदान करने के साथ-साथ खाद्य सहायता प्रदान करने संबंधी उपायों की भी कमी थी।

स्लम विकास की उपेक्षा से उत्पन्न मुद्दे:

  • रोगों के प्रति संवेदनशील:
    • स्लम क्षेत्रों में रहने वाले लोग टाइफाइड और हैजा जैसी जलजनित बीमारियों के साथ-साथ कैंसर व एचआईवी/एड्स जैसी अधिक घातक बीमारियों के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं।
  • सामाजिक कुरीतियों के शिकार:
    • ऐसी बस्तियों में रहने वाली महिलाओं और बच्चों को वेश्यावृत्ति, भीख मांगने और बाल तस्करी जैसी सामाजिक बुराइयों का सामना करना पड़ता है।
      • इसके अलावा ऐसी बस्तियों में रहने वाले पुरुषों को भी इन सामाजिक बुराइयों का सामना करना पड़ता है।
  • अपराध की घटनाएँ:
    • स्लम क्षेत्रों को आमतौर पर ऐसे स्थान के रूप में देखा जाता है, जहाँ अपराध काफी अधिक होते हैं। यह स्लम क्षेत्रों में शिक्षा, कानून व्यवस्था और सरकारी सेवाओं के प्रति आधिकारिक उपेक्षा के कारण है।
  • गरीबी
    • एक विकासशील देश में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले अधिकांश लोग अनौपचारिक क्षेत्र से अपना जीवन यापन करते हैं जो न तो उन्हें वित्तीय सुरक्षा प्रदान करता है और न ही बेहतर जीवन के लिये पर्याप्त आय उपलब्ध कराता है, जिससे वे गरीबी के दुष्चक्र में फँस जाते हैं।

 झुग्गीवासियों/शहरी गरीबों के लिये सरकार की पहल:

सिफारिशें:

  • कल्याण और राहत योजनाओं की दक्षता में तेज़ी लाना।
  • मलिन बस्तियों में मुफ्त टीके, खाद्य सुरक्षा और पर्याप्त आश्रय सुनिश्चित करना।
  • मलिन बस्तियों में स्वच्छता और परिवहन सुविधाओं में सुधार।
  • क्लीनिक और स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थापना।
  • गैर-लाभकारी संस्थाओं और स्थानीय सहायता निकायों की सहायता करना, जिनकी इन हाशिये के समुदायों तक बेहतर पहुँच है।

आगे की राह

  • लाभ अभीष्ट लाभार्थियों के एक छोटे से हिस्से तक ही पहुँच पाते हैं। अधिकांश राहत कोष और लाभ झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों तक नहीं पहुँचते हैं, इसका मुख्य कारण यह है कि इन बस्तियों को सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर मान्यता नहीं दी जाती है।
  • भारत में उचित सामाजिक सुरक्षा उपायों का अभाव देखा गया है और इसका वायरस से लड़ने की हमारी क्षमता पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार शहरी नियोजन और प्रभावी शासन के लिये नए दृष्टिकोण समय की आवश्यकता है।
  • टिकाऊ, मज़बूत और समावेशी बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिये आवश्यक कार्रवाई की जानी चाहिये। शहरी गरीबों के सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों को बेहतर ढंग से समझने के लिये हमें ‘ऊपर से नीचे के दृष्टिकोण’ को अपनाने की आवश्यकता है।

स्रोत : डाउन टू अर्थ 

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