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‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’ की कार्यक्षमता पर सवाल

  • 06 Sep 2017
  • 4 min read

चर्चा में क्यों?

हम जानते हैं कि बैंकिंग क्षेत्र में अभी भी सरकारी बैंकों का दबदबा है। दरअसल, सरकारी बैंक होने का फायदा यह है कि उन्हें सरकार द्वारा गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों (एनपीए) से निपटने हेतु किये जा रहे प्रयासों का सर्वाधिक लाभ मिलता है, लेकिन सच्चाई यह है कि सरकारी बैंकों को कोई राहत नहीं मिली है। गौरतलब है कि बैंकों के ढाँचे में सुधार लाने और उनकी कार्यक्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से स्थापित ‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’ (Banks Board Bureau) ने भी उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया है।

क्या है ‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’ ?

  • फरवरी 2016 में सरकार ने ‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’ का गठन किया और उसे सरकारी बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों में शीर्ष पदों के लिये उम्मीदवार तय करने की ज़िम्मेदारी दी गई।
  • बाद में सरकार ने बैंकों के लिये पूंजी जुटाने की योजना तैयार करने के अलावा व्यावसायिक रणनीति तैयार करने का दायित्व भी ‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’  को सौंप दिया। पूर्व नियंत्रक महालेखापरीक्षक विनोद राय को इसका अध्यक्ष बनाया गया था।

‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’ से संबंधित समस्याएँ 

  • ‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’ पी. जे. नायक समिति की अनुशंसाओं के क्रियान्वयन का आधा-अधूरा कदम था। नायक समिति की मुख्य अनुशंसा यह थी एक ऐसी होल्डिंग कंपनी को आगे लाया जाए जो बैंकों के रोज़मर्रा के प्रशासन और नियमन में सरकार की भूमिका कम कर सके।
  • इस दिशा में पहले कदम के रूप में बैंक बोर्ड ब्यूरो के गठन का सुझाव आया, लेकिन जब ब्यूरो का गठन हुआ तो उसे कोई अधिकार नहीं दिया गया।
  • नायक समिति ने सुझाव दिया था कि इसे बोर्ड स्तर की नियुक्तियाँ समेत सभी वरिष्ठ नियुक्तियों की निगरानी करनी चाहिये, लेकिन इसे इस कदर सीमित कर दिया गया कि यह केवल सरकारी बैंकों और वित्तीय संस्थानों के प्रमुखों के नाम सुझाने के ही काम आ सका।
  • इससे आईआईएफसीएल, आईएफसीआई, सिडबी और एग्ज़िम बैंक जैसे संस्थानों के प्रमुखों के चयन का अधिकार छीनकर वित्त बैंक को दे दिया गया।

निष्कर्ष

  • ‘बैंक्स’ बोर्ड ब्यूरो को सरकारी बैंकों के शासन-प्रशासन के मानकों को सुधारने का काम सौंपा गया था।
  • यदि इसे सच में समुचित अधिकार प्रदान किये गए होते तो यह सरकारी बैंकों की स्वायत्तता में सुधार लाने वाला एक बड़ा कदम हो सकता था।
  • इससे बैंकों की क्षमता में भी सुधार देखने को मिल सकता था। हालाँकि ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया।
  • बहरहाल, अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह ब्यूरो मोटे तौर पर एक अप्रभावी निकाय है और सार्वजनिक बैंकों की स्वायत्तता बढ़ाने की दिशा में इसके द्वारा कोई अन्य महत्त्वपूर्ण प्रयास नहीं किया जा रहा है।
  • ऐसे में सरकार को या तो ‘बैंक्स बोर्ड ब्यूरो’ में सुधारों का उचित खाका पेश करना चाहिये या फिर इसे बंद कर देना चाहिये।
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