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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

रक्षा क्षेत्र में ‘मेक इन इंडिया’ की बिगड़ती दशा

  • 13 Apr 2018
  • 6 min read

चर्चा में क्यों ?
एसोचेम (Assocham) और केपीएमजी (KPMG) द्वारा संयुक्त रूप से जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार रक्षा मंत्रालय द्वारा निविदाओं (Tenders) में रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों (PSUs) और ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्डों (OFBs) को दी जा रही प्राथमिकता, डीआरडीओ के माध्यम से ऑफसेट डिस्चार्ज के लिये उच्च गुणक जैसी कुछ बड़ी वज़हों से रक्षा क्षेत्र में समान स्तरीय प्रतिस्पर्द्धात्मकता और ‘मेक इन इंडिया’ को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है। 

प्रमुख बिंदु 

  • डिफेंस एक्सपो 2018  में जारी की गई रिपोर्ट  के अनुसार, रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों को निजी निर्माताओं की तुलना में कई अनुचित लाभ प्रदान किये जाते हैं। रक्षा मंत्रालय प्रतियोगी निविदाओं के आधार पर अनुबंध प्रदान करने की बजाय हमेशा रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों को प्राथमिकता देता  है।
  • पिछले कई वर्षों से रक्षा मंत्रालय ने नामांकन के आधार पर निविदाएँ प्रदान करके रक्षा क्षेत्र के  सार्वजनिक उपक्रमों और ऑर्डनेंस फैक्ट्री बोर्डों को निजी क्षेत्र पर वरीयता दी है।
  • यहाँ तक कि कई बार नामांकन के आधार पर अनुबंध प्रदान करने की प्रथा को बंद करने संबंधी  घोषणाएँ करने के बावजूद रक्षा मंत्रालय ने इसका पालन नहीं किया और प्रतियोगी निविदा प्रक्रिया  का चयन करने के विपरीत सार्वजनिक संस्थाओं को अनुबंध प्रदान किये हैं। 
  • उदहारणस्वरुप, रक्षा मंत्रालय ने 2017 में ओएफबी और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड को  $ 370 मिलियन के बीएमपी -2 पैदल सेना वाहन उन्नयन कार्यक्रम (BMP-2 infantry combat vehicle upgrade programme) प्रदान कर दिया, जबकि यह कार्यक्रम प्रतियोगी निविदा प्रक्रिया द्वारा आवंटित किया जाना था।
  • इसी तरह, 2012 में मंत्रालय ने ऑफसेट दायित्व के दिशा-निर्देशों में संशोधन किया जिसमें डीआरडीओ के सहयोग के लिये उच्च गुणक का अनुचित लाभ प्रस्तावित किया गया। इससे ऑफसेट नीति के मुख्य उद्देश्य को क्षति पहुँची, जिसका लक्ष्य स्वदेशी रक्षा निर्माण पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करना है।

पूंजी लागत में अंतर

  • रिपोर्ट में कहा गया है कि पूंजी लागत में बड़े अंतर के चलते रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों को अनुचित लाभ  मिल रहा है।
  • निजी निर्माताओं के लिये पूंजी की लागत प्रति वर्ष 10-12 फीसदी है, जबकि डीपीएसयू और ओएफबी के लिये पूंजी की आवश्यकता को वित्त मंत्रालय द्वारा खुद ही वित्तपोषित किया जाता है।
  • उदाहरणस्वरूप, अगर किसी अनुबंध को पूरे होने में दो से तीन साल लगते हैं, तो एक निजी निर्माता की लागत सार्वजनिक संस्थाओं की लागतों की तुलना में 25-30 फीसदी अधिक होती है। पूंजी की लागत में इतना बड़ा अंतर निजी कंपनियों को गैर-प्रतिस्पर्द्धी बनाता है और प्रायः निजी कंपनियों को रक्षा निविदाओं में भाग लेने से हतोत्साहित करता है।
  • भारत को रक्षा क्षेत्र में 'मेक इन इंडिया' की सफलता सुनिश्चित करने के लिये निजी उद्यमों और सार्वजनिक संस्थाओं की क्षमता का रणनीतिक रूप से लाभ उठाने की आवश्यकता है क्योंकि ऑटोमोटिव और हेल्थकेयर जैसे अन्य क्षेत्रों में, जहाँ 'मेक इन इंडिया' सफल हुआ है, वहाँ निजी निवेशों ने मुख्य प्रेरक की भूमिका निभाई है।
  • यहाँ तक कि रक्षा उद्योग में, निजी निर्माताओं के पास कई आवश्यक रक्षा प्रणालियाँ / उपकरण उपलब्ध करवाने की क्षमता है। इससे आयात की बढ़ती मात्रा को कम करने और देश के लिये महत्त्वपूर्ण आर्थिक लाभ उत्पन्न करने में मदद मिलेगी।

आधुनिकीकरण की आवश्यकता 

  • भारतीय सशस्त्र बलों की आधुनिकीकरण की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, रक्षा मंत्रालय को 2027 तक 250 अरब डॉलर से अधिक कीमत के उपकरण हासिल करने की आवश्यकता होगी। जबकि, हाल के अनुमान से पता चलता है कि रक्षा क्षेत्र की वर्तमान वितरण क्षमता 75-80 अरब डॉलर सालाना है।
  • इस दर पर, रक्षा उद्योग 80 अरब डॉलर के उपकरणों का निर्माण करने में सक्षम होगा और बाकी का आयात करना होगा। अर्थात् स्वदेशी और आयातित उपकरणों का अनुपात 30:70 पर अटका हुआ है।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि रक्षा उपकरणों के 70 प्रतिशत स्वदेशी विनिर्माण के आकांक्षात्मक लक्ष्य को हासिल करने के लिये भारत को बड़े पैमाने पर अनुसंधान एवं विकास तथा विनिर्माण क्षमताओं के विकास हेतु निजी उद्यम को प्रोत्साहित करना होगा।
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