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प्रीलिम्स फैक्ट्स : 28 दिसंबर, 2018

  • 28 Dec 2018
  • 5 min read

पोक्काली धान (Pokkali Paddy)


जब अगस्त में विनाशकारी बाढ़ ने पूरे केरल (Kerala) में खेतों को जलमग्न कर दिया था उस समय पोक्काली धान की किस्म जो 2 मीटर तक की ऊँचाई तक बढ़ती है, इस जल वृद्धि से अप्रभावित रही।

  • केरल की इस धान की किस्म को GI टैग प्राप्त है।
  • इसकी खेती अलाप्पुझा (Alappuzha), एर्नाकुलम (Ernakulam) और त्रिशूर (Thrissur) ज़िलों के तटीय क्षेत्रों में की जाती है।
  • एकल मौसम वाले इस धान की खेती जून से नवंबर के बीच खारे पानी के खेतों में की जाती है और उसके बाद इन्हीं खेतों में मछली पालन किया जाता है।
  • फसल कटने के बाद खेतों में बचे धान के अवशेष झींगा तथा अन्य छोटी मछलियों के लिए भोजन और आश्रय का काम करते हैं।
  • मछली के मलोत्सर्ग (excreta) और शल्क (Scales) के साथ-साथ धान के विघटित अवशेष अगले सीज़न में पोक्काली धान की खेती के लिये बेहतर प्राकृतिक खाद का काम करते हैं।
  • स्थानीय लोगों का मानना है कि धान की यह किस्म औषधीय गुणों से युक्त है इसलिये कुछ स्थानीय सोसायटियों, सहकारी बैंकों और मनरेगा समूहों ने चावल की इस किस्म की रक्षा के लिये कदम बढ़ाया है।

पावाकूथू कठपुतली कला (Pavakoothu Puppetry)

      • केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू कहा जाता है।
      • इसका प्रार्दुभाव 18वीं शताब्‍दी में वहाँ के प्रसिद्ध शास्‍त्रीय नृत्‍य-नाटक कथकली के पुतली-नाटकों पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण हुआ।
      • पावाकूथू में पुतली की लंबाई एक से दो फीट के बीच होती है। मस्‍तक तथा दोनों हाथ लकड़ी से बना कर एक मोटे कपड़े से जोड़े जाते हैं फिर एक छोटे से थैले के रूप में सिल दिये जाते हैं।
      • परिचालक उस थैली में अपना हाथ डालकर पुतली के मस्‍तक और दोनों भुजाओं का संचालन करता है।
      • पुतली के चेहरे के अंकरण में रंग, चमकीले टीन के टुकड़े तथा मोरपंखों का उपयोग किया जाता है।
      • इस प्रस्‍तुति के समय चेंडा, चेनगिल, इलाथलम वाद्य-यंत्रों तथा शंख का उपयोग किया जाता है।
      • केरल के ये पुतली-नाटक रामायण तथा महाभारत की कथाओं पर आ‍धारित होते हैं।

काजीरंगा में जलपक्षी का बेसलाइन सर्वे (Baseline Survey of Waterfowl in Kaziranga)

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        • हाल ही में काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों, विशेष रूप से जलपक्षी (waterfowl) का सर्वेक्षण किया गया।
        • काजीरंगा में विशेष रूप से गेंडा, हाथी, बंगाल टाइगर और एशियाटिक वॉटर बफेलो (Asiatic water buffalo) पर ध्यान दिया जाता रहा है।
        • किसी भी क्षेत्र में पक्षियों की संख्या उस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिति को प्रतिबिंबित करती है। यह बेसलाइन सर्वेक्षण इस क्षेत्र में जलपक्षियों की जनसंख्या की प्रवृत्ति को समझने में मदद करेगा।

सुंदरबन में रिवर डॉल्फिन पर खतरा

          • भारतीय सुंदरबन के मध्य और पूर्वी क्षेत्रों में जल की लवणता में वृद्धि के परिणामस्वरूप गंगा रिवर डॉल्फिन (गंगा सूंस) की आबादी में कमी आई है।
          • यह प्रजाति सुंदरबन के केवल पश्चिमी भाग में बहुत कम संख्या में पाई जाती हैं, जहाँ जल की लवणता कम है।

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          • लवणता में वृद्धि के कारण:

♦ सुंदरबन ऊपरी इलाकों से आने वाले ताज़े जल की अनुपस्थिति
♦ जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्री जल-स्तर में वृद्धि

        • सुंदरबन में ताज़े पानी का प्रवाह इन प्रजातियों के निर्वाह के लिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उच्च लवणता वाले जल में डूबे रहना डॉल्फिन के लिये मुश्किल हो जाता है।
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