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सामाजिक न्याय

अफ्रीकी मूल के लोगों का स्थायी मंच

  • 07 Aug 2021
  • 10 min read

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र महासभा, अफ्रीकी मूल के लोगों का स्थायी मंच

मेन्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र महासभा में अफ्रीकी मूल के लोगों हेतु एक स्थायी मंच की स्थापना के प्रस्ताव से नस्लवाद जैसे मुद्दों का समाधान 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अफ्रीकी मूल के लोगों हेतु एक स्थायी मंच की स्थापना के प्रस्ताव को मंज़ूरी दी है।

  • यह फोरम मान्यता, न्याय और विकास के विषयों पर केंद्रित है।

प्रमुख बिंदु

परिचय:

  • यह फोरम नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोफोबिया और असहिष्णुता की चुनौतियों का समाधान करने के लिये विशेषज्ञ सलाह प्रदान करेगा।
  • यह "अफ्रीकी मूल के लोगों की सुरक्षा और जीवन की गुणवत्ता तथा आजीविका में सुधार के लिये एक मंच" एवं उन समाजों में उनके पूर्ण समावेश के रूप में काम करेगा, जहाँ वे रहते हैं।
  • इसे जनादेश की एक शृंखला प्रदान की गई थी।
    • इनमें "अफ्रीकी मूल के लोगों का पूर्ण राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समावेश" सुनिश्चित करने में मदद करना तथा जिनेवा स्थित मानवाधिकार परिषद, महासभा की मुख्य समितियों व संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों को नस्लवाद से निपटने हेतु सिफारिशें प्रदान करना शामिल है।
  • फोरम में 10 सदस्य होंगे:
    • सभी क्षेत्रों से महासभा द्वारा चुने गए पाँच सदस्य।
    • अफ्रीकी मूल के लोगों के क्षेत्रीय समूहों और संगठनों के साथ परामर्श के बाद मानवाधिकार परिषद द्वारा नियुक्त पाँच सदस्य।
  • यह संकल्प वर्ष 2022 में होने वाले फोरम के पहले सत्र आयोजन का आह्वान करता है।

अफ्रीकी मूल के लोग:

  • परिचय:
    • अमेरिका में रहने वाले लगभग 200 मिलियन लोग अफ्रीकी मूल के होने के नाते अपनी पहचान बना रहे हैं।
    • अफ्रीकी महाद्वीप के बाहर भी दुनिया के अन्य हिस्सों में कई लाख और लोग रहते हैं।
  • मुद्दे:
    • चाहे वे ट्रान्स अटलांटिक दास व्यापार से पीड़ितों के वंशज हों या हाल के प्रवासियों के रूप में, वे कुछ सबसे गरीब और सबसे हाशिये पर स्थित समूहों का गठन करते हैं।
    • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, आवास और सामाजिक सुरक्षा तक उनकी पहुँच अभी भी सीमित है।
    • वे सभी अक्सर न्याय तक पहुँच के मामले में भेदभाव का अनुभव करते हैं और नस्लीय प्रोफाइलिंग के साथ-साथ पुलिस हिंसा की खतरनाक रूप से उच्च दर का सामना करते हैं।
    • इसके अलावा मतदान और राजनीतिक पदों पर कब्ज़ा करने में उनकी राजनीतिक भागीदारी अक्सर कम होती है।
  • संबंधित पहल:
    • डरबन घोषणा और कार्ययोजना (2001):
      • इसने स्वीकार किया कि अफ्रीकी मूल के लोग गुलामी, दास व्यापार और उपनिवेशवाद के शिकार थे तथा इसके परिणामों के शिकार बने रहे।
      • इसने उनकी दृश्यता को बढ़ाया और राज्यों, संयुक्त राष्ट्र, अन्य अंतर्राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय निकायों तथा नागरिक समाज द्वारा की गई ठोस कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप उनके अधिकारों के प्रचार और संरक्षण की महत्त्वपूर्ण प्रगति में योगदान दिया।
    • वर्ष 2014 में महासभा ने आधिकारिक तौर पर अफ्रीकी मूल के लोगों के लिये अंतर्राष्ट्रीय दशक (2015 - 2024) का शुभारंभ किया।

नस्लवाद

परिचय:

  • नस्लवाद का आशय ऐसी धारणा से है, जिसमें यह माना जाता है कि मनुष्यों को ‘नस्ल’ के रूप में  अलग और विशिष्ट जैविक इकाइयों में विभाजित किया जा सकता है; इस धारणा के मुताबिक, विरासत में मिली भौतिक विशेषताओं और व्यक्तित्व, बुद्धि, नैतिकता तथा अन्य सांस्कृतिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं के लक्षणों के बीच संबंध होता है और कुछ विशिष्ट ‘नस्लें’ अन्य की तुलना में बेहतर होती हैं।
  • यह शब्द राजनीतिक, आर्थिक या कानूनी संस्थानों और प्रणालियों पर भी लागू होता है, जो ‘नस्ल’ के आधार पर भेदभाव करते हैं अथवा धन एवं आय, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, नागरिक अधिकारों तथा अन्य क्षेत्रों में नस्लीय असमानताओं को बढ़ावा देते हैं।
    • प्रायः ज़ेनोफोबिया और नस्लवाद को एक जैसा माना जाता है, किंतु इनमें अंतर यह है कि नस्लवाद में शारीरिक विशेषताओं के आधार पर भेदभाव किया जाता है, जबकि ज़ेनोफोबिया में इस धारणा के आधार पर भेदभाव किया जाता है कि कोई विदेशी है अथवा किसी अन्य समुदाय या राष्ट्र से संबद्ध है।
      • ‘ज़ेनोफोबिया’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘ज़ेनो’ से हुई है।
  • भारतीय समाज में नस्लीय भेदभाव काफी गहरे तक मौजूद है।

नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध पहलें:

  • डरबन डिक्लेरेशन एंड प्रोग्राम ऑफ एक्शन (2001): इसे ‘नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, ज़ेनोफोबिया और संबंधित असहिष्णुता के खिलाफ विश्व सम्मेलन’ द्वारा अपनाया गया था।
  • प्रतिवर्ष 21 मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस’ का आयोजन किया जाता है।
  • ‘संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन’ (यूनेस्को) द्वारा शिक्षा, विज्ञान, संस्कृति और संचार के माध्यम से नस्लवाद के विरुद्ध की जा रही कार्रवाई इस संबंध में एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करती है।
  • ग्लोबल फोरम अगेंस्ट रेसिज़्म एंड डिस्क्रिमिनेशन: पेरिस स्थित यूनेस्को के मुख्यालय में कोरिया गणराज्य के साथ साझेदारी के माध्यम से इसकी मेजबानी की गई थी।
  • जनवरी 2021 में विश्व आर्थिक मंच ने कार्यस्थल पर नस्लीय और जातीय न्याय में सुधार के लिये प्रतिबद्ध संगठनों का एक गठबंधन शुरू किया था।
  • ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन ने न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका बल्कि संपूर्ण विश्व में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध आक्रोश को जन्म दिया है। वैश्विक स्तर पर तमाम तरह के लोग नस्लीय भेदभाव की व्यापकता के विरुद्ध एकजुट हुए हैं।

भारत में नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध प्रावधान:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 16 और अनुच्छेद 29 ‘नस्ल’, ‘धर्म’ तथा ‘जाति’ के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाते हैं।
  • भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 153A भी ’नस्ल’ को संदर्भित करती है।
  • भारत ने वर्ष 1968 में ‘नस्लीय भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन पर अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन’ (ICERD) की पुष्टि की थी।

आगे की राह

  • अंतर-सांस्कृतिक संवाद का नवीनतम दृष्टिकोण युवाओं को किसी वर्ग विशिष्ट से संबंधित रूढ़ियों को समाप्त करने और उनमें सहिष्णुता बढ़ाने में सहायक हो सकता है।
  • नस्लवाद और जातिवाद से संबंधित भेदभाव की हालिया घटनाएँ संपूर्ण समाज को समानता के संबंध में विभिन्न पहलुओं को नए सिरे से सोचने पर मजबूर करती हैं। नस्लवाद की समस्या को केवल सद्भाव अथवा सद्भावना के माध्यम से समाप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि इसके लिये नस्लवाद-विरोधी कार्रवाई की भी आवश्यकता होगी।
    • सुरक्षा में नई तकनीकों और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग 'तकनीकी-नस्लवाद' के खतरे को बढ़ाता है, क्योंकि चेहरे की पहचान प्रोग्राम नस्लीय समुदायों के संबंध में गलत पहचान को लक्षित कर सकता है।
  • इसके लिये सहिष्णुता, समानता के साथ ही भेदभाव विरोधी एक वैश्विक संस्कृति का निर्माण किया जाना काफी महत्त्वपूर्ण है।

स्रोत: द हिंदू

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