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सामाजिक न्याय

महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • 17 Oct 2020
  • 9 min read

प्रिलिम्स के लिये: 

घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम, 2005, सर्वोच्च न्यायालय

मेन्स के लिये: 

महिला अधिकारों के संरक्षण में  सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान निर्णय का महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम, 2005 पर चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को एक ‘कभी न खत्म होने वाले चक्र’ (Never-Ending Cycle) के रूप में परिभाषित किया। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा तथा अपराध की घटनाएँ निरंतर जारी हैं, जो भारत जैसे प्रगतिशील राष्ट्र के समक्ष गंभीर चिंता का कारण बनी हुई है।

प्रमुख बिंदु:

  • निर्णय: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम, 2005 (Protection of Women from Domestic Violence Act, 2005) पर विस्तार से चर्चा करने के बाद दिया गया। 
    • यह कानून  घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को ’साझा घर’ (Shared Household) में रहने का अधिकार प्रदान करता  है, भले ही पीड़ित महिला के पति के पास घर का कोई कानूनी अधिकार न हो तथा यह घर ससुर या सास के स्वामित्व में हो।
  • अधिनियम को व्यापक बनाना:  न्यायालय के अनुसार,  यदि आपराधिक न्यायालय (Criminal Court) द्वारा घरेलू हिंसा के कानून के तहत किसी विवाहित महिला को निवास का अधिकार (यहाँ ऐसे निवास स्थल की बात की गई है जहाँ महिला एवं पुरुष दोनों साथ रह रहे हैं) दिया गया है तो इस प्रकार की राहत प्रदान करने का निर्णय लिया जाना प्रासंगिक है, साथ ही ससुराल में हिंसा से पीड़ित महिला को बेदखल करने की स्थिति में नागरिक कार्यवाही (Civil Proceedings) पर भी विचार किया जा सकता है। 
    • पत्नी को घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 के तहत संयुक्त परिवार में ‘साझा घर’ (Shared Household) पर दावा करने का अधिकार प्राप्त होगा।
    • घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 2 (s) 'साझा संपत्ति’ (Shared Property) को परिभाषित करती है,  जो महिला के पति या संयुक्त परिवार के स्वामित्व वाली संपत्ति के रूप में होती है और जिसमे महिला का पति भी शामिल है ।
  • पूर्व निर्णय को पलटना:  दिसंबर 2006 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए पूर्व निर्णय, एस. आर. बत्रा बनाम तरुणा बत्रा ( SR Batra v Taruna Batra) मामले को न्यायालय द्वारा उलट दिया गया है. अपने पूर्व के निर्णय में न्यायालय द्वारा पत्नी को पति के घर में रहने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था क्योंकि यह घर पति की माँ के स्वामित्व में था।  
    • न्यायालय द्वारा पूर्व निर्णय/आदेश को गलत माना गया है  क्योंकि  यह निर्णय पूरी तरह वर्ष 2005 के अधिनियम के प्रावधानों के अनुरूप नहीं था।
  • क्रूर/हिंसक  व्यवहार की कम-से-कम रिपोर्ट:  न्यायालय ने कहा है कि वर्ष 2005 के अधिनियम के अनुपालन के बाद भी भारत में घरेलू हिंसा की घटनाओं में अभी तक कमी नहीं आई है। न्यायालय ने कहा कि भारत में एक महिला को पुत्री, बहन, पत्नी, माँ, साथी या एकल महिला के रूप में घेरलू हिंसा एवं भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जो कि चिंतनीय है।
  • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -4 (2015-16) (NFHS-4) के अनुसार, भारत में 15-49 आयु वर्ग की 30% लड़कियाँ एवं महिलाएँ शारीरिक हिंसा की पीड़ित हैं।
  • UN वुमन (United Nations Entity for Gender Equality and the Empowerment of Women-UN Women) के अनुसार, विश्व स्तर पर वर्ष 2019-20 में 243 मिलियन लड़कियाँ और महिलाएंँ (15-49 वर्ष की आयु) अपने साथी द्वारा यौन या शारीरिक हिंसा की शिकार हुई हैं।
    • हिंसा की शिकार महिलाओं में से 40% से कम महिलाएँ किसी भी प्रकार की मदद मांगती हैं या हिंसा/अपराध की रिपोर्टिंग करती हैं।
    • मदद मांगने वाली इन महिलाओं में से 10% पुलिस के पास शिकायत दर्ज कराती हैं।
  • कारण: महिलाओं द्वारा अपने साथ होने वाले दुर्व्यवहार का दृढ़ता के साथ विरोध न करने या किसी ठोस कार्यवाही के लिये कदम न उठा पाने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
    • बड़े पैमाने पर महिला अधिकारों को संबोधित करने वाले कानूनों की अनुपस्थिति।
    • मौजूदा कानूनों की अनदेखी।
    • सामाजिक दृष्टिकोण, कलंक एवं परिस्थितियों के चलते भी महिलाओं द्वारा  घरेलू हिंसा के प्रति कोई ठोस कदम नहीं  उठाया जाता है जो महिलाओं के प्रति हिंसक मामलों की शिकायत न करने का मुख्य कारक है।
    • परिस्थितियों के चलते समाज में इस अवधारणा को बल मिला है कि अधिकांश महिलाएँ चुप रहकर परिस्तिथियों के साथ समझौता करना पसंद करती हैं  बजाय अपने खिलाफ हुए हिंसा का विरोध करने के।

घरेलू हिंसा अधिनियम:

  • अधिनियम  का संक्षिप्त नाम घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनयम, 2005 है। 
  • शारीरिक हिंसा, जैसे- थप्पड़ मारना, धक्का देना एवं पीटना।
  • यौन हिंसा जैसे- जबरन संभोग एवं अन्य रूप। (बलात्कार)
  • भावनात्मक (मनोवैज्ञानिक) दुरुपयोग, जैसे- अपमान, विश्वासघात, निरंतर अपमान करना, डराना, नुकसान पहुँचाने की धमकी, बच्चों को दूर करने की धमकी देना इत्यादि।
  • किसी  व्यक्ति को उसके परिवार  एवं दोस्तों से अलग करना, व्यक्ति के कही आने-जाने पर निगरानी रखना उसके  वित्तीय संसाधनों, रोज़गार, शिक्षा या चिकित्सा देखभाल तक पहुँच को प्रतिबंधित करना इत्यादि।

आगे की राह:

  • महिलाओं के खिलाफ उन हिंसक मामलों को तत्काल प्रभाव से निपटाने की ज़रूरत है जिनका सामना वे आर्थिक सहायता और प्रोत्साहन पैकेज के अभाव में भेदभाव के कई रूपों में करती हैं।
  • ज़मीनी स्तर पर महिलाओं के हितों के लिये कार्य करने वाले संगठनों एवं समुदायों को दृढ़ता से समर्थन करने की आवश्यकता है।
  • सामाजिक सहायता का विस्तार करने के साथ-साथ  फोन या इंटरनेट का उपयोग न करने वाली महिलाओं तक इनकी पहुँच सुनिश्चित करने के लिये  तकनीक आधारित समाधानों जैसे- एसएमएस, ऑनलाइन टूल एवं नेटवर्क का उपयोग करते हुए हेल्पलाइन, साइकोसोशल सपोर्ट और ऑनलाइन काउंसलिंग को बढ़ावा दिया जाना चाहिये ।
  • पुलिस और न्याय सेवाओं को यह सुनिश्चित करना चाहिये  कि किसी भी आपराधिक घटना के साथ-साथ महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हुई हिंसक घटनाओं को भी अन्य हिंसक एवं आपराधिक घटनाओं के साथ उच्च प्राथमिकता दी जाए।

स्रोत: द हिंदू

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