नरसु अप्पा माली केस 1951 | 19 Mar 2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
संविधान के तहत व्यक्तिगत कानूनों की जाँच की जा सकती है या नहीं, इस पर बहस लंबे समय से बॉम्बे राज्य बनाम नरसु अप्पा माली केस, 1951 के महत्त्वपूर्ण निर्णय से प्रभावित रही है।
- यह मामला, विशेष रूप से समान नागरिक संहिता (UCC) और धार्मिक कानून के अंतर्गत लैंगिक न्याय से संबंधित चर्चाओं में, आज भी प्रासंगिक है।
बॉम्बे राज्य बनाम नरसु अप्पा माली मामला, 1951 क्या है?
- पृष्ठभूमि: महाराष्ट्र के निवासी नरसु अप्पा माली को बॉम्बे (हिंदू द्विविवाह रोकथाम) अधिनियम, 1946 के तहत एक सत्र न्यायालय द्वारा प्रथा के अनुसार दूसरी शादी करने के लिये दोषी ठहराया गया था।
- इस अधिनियम के तहत द्विविवाह को दंडनीय अपराध माना गया।
- न्यायालय ने फैसला दिया कि यह कानून अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है, भले ही यह केवल हिंदुओं पर लागू होता है, जबकि मुस्लिम पुरुष एक से अधिक विवाह कर सकते हैं।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय: इसने वर्ष 1946 के कानून की संवैधानिकता को बरकरार रखा और कहा कि व्यक्तिगत कानून, जब तक संहिताबद्ध नहीं हो जाते, मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिये जाँच के अधीन नहीं हैं।
- न्यायालय द्वारा फैसला सुनाया गया कि व्यक्तिगत कानून अनुच्छेद 13 के तहत संवैधानिक जाँच से मुक्त हैं, यहाँ तक कि प्रतिगामी प्रथाओं की भी अनुमति दी गई है।
- बाद के मामलों पर प्रभाव:
- ट्रिपल तलाक मामला, 2017: सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने तत्काल ट्रिपल तलाक ((तलाक-ए-बिद्दत)) को खारिज कर दिया है तथा निर्णय दिया कि यह शरीयत अधिनियम, 1937 के तहत संहिताबद्ध है और संवैधानिक जाँच के अधीन है।
- सबरीमाला मामला, 2018: सर्वोच्च न्यायालय ने नरसु फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि व्यक्तिगत कानूनों सहित सभी कानूनों को संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिये।
- वर्तमान मामला: विशेषज्ञों का तर्क है कि लैंगिक न्याय के लिये नरसु फैसले पर पुनर्विचार किया जाना चाहिये।
- इसे अक्सर व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप न करने को उचित ठहराने के लिये उद्धृत किया जाता है, जिसके कारण विवाह, उत्तराधिकार और रीति-रिवाज़ों पर परस्पर विरोधी निर्णय सामने आते हैं।
पर्सनल लॉ में न्यायिक हस्तक्षेप से संबंधित अन्य मामले
- शाहबानो केस, 1985: मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को मान्यता दी गई तथा व्यक्तिगत कानूनों में लैंगिक न्याय की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया।
- सरला मुद्गल केस, 1995: सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू पुरुषों को केवल बहुविवाह करने हेतु इस्लाम धर्म अपनाने से रोकने के लिये समान नागरिक संहिता का समर्थन किया।
- शायरा बानो केस, 2017: ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया, लैंगिक न्याय को बढ़ावा दिया गया।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: स्वीय विधियों को धार्मिक परंपराओं के स्थान पर सांविधानिक नैतिकता के अनुरूप होना चाहिये। चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. उन संभावित कारकों पर चर्चा कीजिये जो भारत को अपने नागरिकों के लिये एक समान नागरिक संहिता लागू करने से रोकते हैं, जैसा कि राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों में प्रदान किया गया है। (2015) |