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इमारती लकड़ी के लिये घास के मैदानों की उपेक्षा

  • 17 Jan 2018
  • 5 min read

हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पश्चिमी घाट के पलानी पहाड़ी क्षेत्र में इमारती लकड़ी के बागानों, कृषि के विस्तार और आक्रामक प्रजातियों के प्रसार के कारण प्राकृतिक घास के मैदानों के क्षेत्रफल में लगभग दो-तिहाई तक की कमी हुई हैं।

शोलास वन

  • नीलगिरी, अन्नामलाई और पालनी पहाड़ियों पर पाए जाने वाले शीतोष्ण कटिबंधीय वनों को स्थानीय रूप से ‘शोलास’ के नाम से जाना जाता है। 
  • 'शोला' (shola) शब्द तमिल शब्द 'कोलाइ' (cholai) का अपभ्रंश रूप है, जिसका अर्थ होता है- ठंडा स्थान या जंगल।
  • इन वनों में पाए जाने वाले वृक्षों में मगनोलिया, लैरेल, सिनकोना और वैटल का आर्थिक महत्त्व है।
  • पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में कमी आने के कारण प्राकृतिक वनस्पति में भी बदलाव आता है। यहाँ ऊँचाई वाले क्षेत्रों में शीतोष्ण कटिबंधीय और निचले क्षेत्रों में उपोष्ण कटिबंधीय प्राकृतिक वनस्पतियाँ पाई जाती है। 
  • तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक प्रांत की पर्वत श्रृंखलाएँ उष्णकटिबंध क्षेत्र में पड़ती हैं और इनकी समुद्र तल से ऊँचाई लगभग 1500 मीटर है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु 

  • कोडाईकनाल नामक हिल स्टेशन के लिये प्रसिद्ध इस पहाड़ी परिदृश्य में परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिये बंगलूरू के अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट के शोधकर्त्ताओं ने भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (तिरुपति), भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण जैसे संस्थानों के साथ मिलकर उपग्रह चित्रण का प्रयोग किया।
  • 1973 में शोला घास के मैदान 373.78 वर्ग किमी. में फैले हुए थे। चार दशकों बाद 2014 में इनमें 66.7% की कमी के साथ ये सिर्फ 124.4 वर्ग किमी. क्षेत्र में ही सीमित रह गए है।
  • यहाँ तक ​​कि स्थानीय शोला वनों में भी एक-तिहाई तक की कमी देखी गई है। शोधकर्त्ताओं के अनुसार, ये सारे नाटकीय परिवर्तन केवल दो दशकों में ही घटित हुए हैं।
  • यह तीव्र गिरावट,शोला घास के मैदानों में बहुत अधिक है जबकि, शोलास वनों में 2003 के बाद से गिरावट में कमी देखने को मिल रही है।

शोला घास के मैदानों में कमी के कारण 

  • वन विभाग के कर्मचारियों की प्रशिक्षण अवधि में संरक्षण अथवा आय के स्रोत की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण वन प्रबंधन पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। इस कारण घास के मैदानों,जो कि कई प्रजातियों के लिये महत्त्वपूर्ण आवास हैं, की उपेक्षा कर दी जाती है।
  • इमारती लकड़ी के वृक्षारोपण को बढ़ावा मिलने से घास के मैदानों में कमी देखने को मिल रही है। 1973 के केवल 18 वर्ग किमी. की तुलना में वृक्षारोपण आश्चर्यजनक रूप से 1093% तक बढ़कर 217 वर्ग किमी. हो गया है।
  • पिछले चार दशकों में इस क्षेत्र में कृषि और परती भूमि तीन गुना तक बढ़कर 100 वर्ग किमी. तक पहुँच गई है। 
  • उपग्रह चित्रण के प्रयोग से वृक्षारोपण के विकास की प्रकृति भी सामने आई है। 90 के दशक तक विशेषतया श्रीलंका से शरणार्थियों के अधिवासित होने के बाद वृक्षारोपण को नीतिगत रूप से बढ़ावा दिया गया था।
  • किंतु इसके बाद आक्रामक प्रजातियों जैसे विशाल मात्रा में बीज उत्पादित करने वाली बबूल/एकेसिया (Acacia) प्रजाति की संख्या बढती गई।

समाधान

  • घास के मैदानों की स्थिति वनों की तुलना में अधिक संकटमय है। घास के मैदानों के विलुप्त होने या अधिक विखंडित हो जाने से स्थानीय वनस्पतियों और जीवों विशेषकर स्थानिक प्रजाति जैसे- नीलगिरि पिपिट (Nilgiri Pipit) पर खतरे में वृद्धि हो सकती हैं। यहाँ कार्य करने वाले पर्यावरणविदों ने भी इसकी पुष्टि की है।
  • घास के शेष मैदानों की अल्प मात्रा को बचाने के लिये आक्रामक प्रजातियों को हटाना आवश्यक है। इसके लिये आक्रामक वृक्षों की अंधाधुंध कटाई की बजाय पारिस्थितिक समझ की आवश्यकता है क्योंकि ऐसा करने पर ये प्रजातियाँ प्रतिक्रियास्वरूप अधिक तेज़ गति से फैलती हैं।
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