भारतीय राजनीति
LGBTQ अधिकारों के लिये महत्त्वपूर्ण उपलब्धि
- 17 Nov 2021
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प्रिलिम्स के लिये:उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया मेन्स के लिये:भारत में LGBTQ समुदाय की स्थिति और संबंधित चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल भारत के पहले समलैंगिक न्यायाधीश हो सकते हैं। चार बार स्थगित करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम ने अंततः दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनके नाम की सिफारिश की है।
- यद्यपि ‘हितों के टकराव’ को स्थगन के एक कारण के रूप में प्रस्तुत किया गया, किंतु कई जानकार मानते हैं कि उनके नाम की सिफारिश उनके यौन अभिविन्यास के कारण नहीं की जा रही थी।
- यदि उनका चयन होता है तो यह LGBTQ अधिकारों में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित होगा। LGBTQ लेस्बियन, गे, बाई-सेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वीर लिये एक संक्षिप्त शब्द है।
- इससे पहले यूरोपीय संसद ने यूरोपीय संघ को ‘LGBTIQ फ्रीडम ज़ोन’ घोषित किया था।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति:
- संविधान के अनुच्छेद 217 के मुताबिक, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) और राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी, वहीं मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने ‘द्वितीय न्यायाधीश मामले’ (Second Judges Case-1993) में ‘कॉलेजियम प्रणाली’ की शुरुआत यह मानते हुए की कि ‘परामर्श’ से तात्पर्य ‘सहमति’ से है।
- इसमें कहा गया है कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं थी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से निर्मित एक संस्थागत राय थी।
- उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति केवल कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से होती है और सरकार की भूमिका तब शुरू होती है जब कॉलेजियम द्वारा नाम तय कर लिये जाते हैं।
- उच्च न्यायालय (HC) कॉलेजियम में संबंधित मुख्य न्यायाधीश और उस न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
- उच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिये अनुशंसित नाम मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम द्वारा अनुमोदन के बाद ही सरकार तक पहुँचते हैं।
- यदि किसी वकील को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया जाना है, तो सरकार की भूमिका इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) द्वारा जाँच कराने तक सीमित है।
- इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB): यह एक प्रतिष्ठित खुफिया एजेंसी है। यह आधिकारिक तौर पर गृह मंत्रालय द्वारा नियंत्रित है।
- यह कॉलेजियम की पसंद पर आपत्तियाँ भी उठा सकता है और स्पष्टीकरण मांग सकता है, लेकिन अगर कॉलेजियम उन्हीं नामों को दोहराता है, तो सरकार संविधान पीठ के फैसलों के तहत उन्हें न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त करने के लिये बाध्य है।
प्रमुख बिंदु
- भारत में LGBTQ समुदाय की स्थिति:
- राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘ट्रांसजेंडरों को ‘तीसरे लिंग’ के रूप में मान्यता देना एक सामाजिक या चिकित्सा मुद्दा नहीं है, बल्कि मानवाधिकार का मुद्दा है।’
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 के कुछ हिस्सों को हटाकर समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, जिन्हें LGBTQ समुदाय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना जाता था।
- सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संविधान का अनुच्छेद 14 कानून के समक्ष समानता की गारंटी देता है और यह सभी वर्गों के नागरिकों पर लागू होता है।
- इसने भारत में संवैधानिक नैतिकता की श्रेष्ठता को भी बरकरार रखा, यह देखते हुए कि कानून के समक्ष समानता को सार्वजनिक या धार्मिक नैतिकता को वरीयता देकर नकारा नहीं जा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि 'यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के मुद्दों के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुप्रयोग पर योग्याकार्ता सिद्धांत' को भारतीय कानून के एक हिस्से के रूप में लागू किया जाना चाहिये।
- योग्याकार्ता सिद्धांत मानव अधिकारों के हिस्से के रूप में यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान की स्वतंत्रता को मान्यता देते हैं।
- उन्हें 2006 में इंडोनेशिया के योग्याकार्ता में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार विशेषज्ञों के एक विशिष्ट समूह द्वारा प्रतिपादित किया गया था।
- समान लिंग विवाह को लेकर विवाद: ‘शफीन जहान बनाम अशोकन के.एम. और अन्य’ (2018) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि एक साथी की पसंद व्यक्ति का मौलिक अधिकार है और इसलिये समान लिंग के युगल भी हो सकते हैं।
- हालाँकि फरवरी 2021 में केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह का विरोध करते हुए कहा कि भारत में विवाह को तभी मान्यता दी जा सकती है जब वह ‘जैविक पुरुष’ और बच्चे पैदा करने में सक्षम ‘जैविक महिला’ के बीच हो।
- ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019: संसद ने ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 पारित किया है तथा कई जानकारों ने लिंग और यौन पहचान संबंधी मुद्दों को सही ढंग से संबोधित न करने को लेकर इसकी आलोचना की है।
- LGBTQ समुदाय के समक्ष चुनौतियाँ:
- परिवार: यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान की समस्या विवाद व पारिवारिक विघटन की ओर ले जाती है।
- माता-पिता और उनके किसी LGBTQ बच्चों के बीच संचार की कमी तथा गलतफहमी पारिवारिक संघर्ष को बढ़ाता है।
- कार्यस्थल पर भेदभाव: LGBTQ कार्यस्थल पर भेदभाव के कारण बड़े पैमाने पर सामाजिक-आर्थिक असमानताओं से ग्रस्त हैं।
- स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे: समलैंगिक व्यक्तियों के साथ भेदभाव किया जाना अपराध है और LGBTQ लोगों को स्वास्थ्य प्रणाली के भीतर सेवाओं तक खराब या अपर्याप्त पहुँच मिलती है।
- यह सेवाओं की उपलब्धता और HIV रोकथाम, परीक्षण तथा उपचार सेवाओं तक पहुँचने की क्षमता दोनों में बाधा उत्पन्न करता है।
- अलगाव और नशीली दवाओं का दुरुपयोग: वे धीरे-धीरे आत्मसम्मान में कमी और कम आत्मविश्वास की भावना से ग्रस्त हो जाते हैं और मित्रों तथा परिवार से अलग हो जाते हैं।
- ये लोग ज़्यादातर खुद को तनाव और अस्वीकृति तथा भेदभाव से मुक्त करने के लिये ड्रग्स, शराब व तंबाकू के आदी हो जाते हैं।
- परिवार: यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान की समस्या विवाद व पारिवारिक विघटन की ओर ले जाती है।
आगे की राह
- LGTBQ समुदाय को एक भेदभाव-विरोधी कानून की आवश्यकता है जो उन्हें लैंगिक पहचान या यौन अभिविन्यास के बावजूद उत्पादक जीवन और संबंध बनाने का अधिकार देता है तथा बदलाव की ज़िम्मेदारी राज्य एवं समाज पर डालता है, न कि व्यक्ति पर।
- सरकारी निकायों, विशेष रूप से स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था से संबंधित निकायों को यह सुनिश्चित करने के लिये संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है कि LGBTQ समुदाय को सार्वजनिक सेवाओं से वंचित न किया जाए या उनके यौन अभिविन्यास के लिये उन्हें परेशान न किया जाए।