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जैव विविधता और पर्यावरण

समुद्री प्लास्टिक: समस्या और समाधान

  • 07 Jul 2021
  • 11 min read

प्रिलिम्स के लिये

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम (2016)

मेन्स के लिये

समुद्री प्लास्टिक कचरे की समस्या और इससे निपटने के लिये सरकार द्वारा किये गए प्रयास

चर्चा में क्यों?

प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 को लागू करने से संबंधित केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018-19 में उत्पन्न प्लास्टिक कचरा प्रति वर्ष 3.3 मिलियन टन (लगभग 9,200 टन प्रति दिन) था।

प्रमुख बिंदु:

परिचय:

  • प्लास्टिक पेट्रोलियम से बना एक सिंथेटिक कार्बनिक बहुलक है जिसमें पैकेजिंग, भवन एवं निर्माण, घरेलू एवं खेल उपकरण, वाहन, इलेक्ट्रॉनिक्स और कृषि सहित विभिन्न प्रकार के अनुप्रयोगों के लिये आदर्श रूप से अनुकूल गुण हैं। प्लास्टिक सस्ता, हल्का, मज़बूत और लचीला है।
  • प्रत्येक वर्ष 300 मिलियन टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन किया जाता है जिसमें से आधे का उपयोग शॉपिंग बैग, कप और स्ट्रॉ जैसी एकल-उपयोग वाली वस्तुओं को डिज़ाइन करने के लिये किया जाता है।
  • केवल 9% प्लास्टिक कचरे का पुनर्चक्रण किया जाता है। लगभग 12% को जला दिया जाता है जबकि 79% लैंडफिल में जमा हो जाता है।
  • इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) के अनुसार, प्रत्येक वर्ष कम से कम 8 मिलियन टन प्लास्टिक महासागरों में समा जाता है।

प्लास्टिक कचरे के स्रोत:

  • समुद्री प्लास्टिक के मुख्य भूमि आधारित स्रोत शहरी नालों का बहाव, सीवर ओवरफ्लो, समुद्र तटीय आगंतुक, अपर्याप्त अपशिष्ट निपटान एवं प्रबंधन, औद्योगिक गतिविधियाँ, निर्माण एवं अवैध डंपिंग हैं।
  • महासागर आधारित प्लास्टिक मुख्य रूप से मछली पकड़ने के उद्योग, समुद्री गतिविधियों और जलीय कृषि से उत्पन्न होता है।
  • सौर पराबैंगनी विकिरण, वायु, धाराओं और अन्य प्राकृतिक कारकों के प्रभाव में प्लास्टिक के टुकड़े छोटे कणों जैसे-माइक्रोप्लास्टिक्स (5 मिमी. से छोटे कण) या नैनोप्लास्टिक्स (100 एनएम से छोटे कण) में टूट जाते हैं।
    • इसके अलावा, माइक्रोबीड्स, एक प्रकार का माइक्रोप्लास्टिक है जो पॉलीइथाइलीन प्लास्टिक के बहुत छोटे टुकड़े होते हैं, इन्हें स्वास्थ्य और सौंदर्य उत्पादों जैसे- क्लीन्ज़र और टूथपेस्ट में एक्सफोलिएंट के रूप में शामिल किया जाता है। ये छोटे कण आसानी से जल निस्पंदन तंत्र के माध्यम से गुजरते हैं और समुद्र तथा झीलों में समा जाते हैं।

समुद्री प्लास्टिक कचरे से संबंधित चिंताएँ:

  • प्लास्टिक कचरा सीवरों को अवरुद्ध करता है, समुद्री जीवन को खतरे में डालता है और लैंडफिल या प्राकृतिक वातावरण में निवासियों के लिये स्वास्थ्य जोखिम पैदा करता है।
  • समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण की वित्तीय लागत भी काफी महत्त्वपूर्ण है।
    • मार्च 2020 में किये गए पूर्वानुमान के अनुसार, समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण से दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संघ की ‘ब्लू इकॉनोमी’ को प्रत्यक्ष तौर पर प्रतिवर्ष 2.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान होगा।
  • आर्थिक लागत के साथ-साथ समुद्री प्लास्टिक कचरे की सामाजिक लागत भी काफी भारी होती है। तटीय क्षेत्रों के निवासी प्लास्टिक प्रदूषण और ज्वार द्वारा लाए गए कचरे के हानिकारक स्वास्थ्य प्रभावों से सबसे अधिक पीड़ित होते हैं।
  • प्रायः यह देखा जाता है कि नावें मछली पकड़ने के जाल में फँस जाती हैं या उनके इंजन प्लास्टिक के मलबे से ब्लॉक हो जाते हैं।
    • यह नौवहन, मत्स्य पालन, जलीय कृषि और समुद्री पर्यटन जैसे उद्योगों के लिये समस्याएँ उत्पन्न कर सकता है, जो कि तटीय समुदाय की आजीविका को प्रभावित करते हैं।

इस संबंध में किये गए प्रयास

  • ग्लोलिटर पार्टनरशिप प्रोजेक्ट
    • इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन’ (IMO) और ‘संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन’ (FAO) द्वारा लॉन्च किया गया है और इसका प्रारंभिक वित्तपोषण नॉर्वे सरकार द्वारा किया गया है।
    • उद्देश्य: शिपिंग और मत्स्य पालन उद्योग से होने वाले समुद्री प्लास्टिक कचरे को कम करना।
      • साथ ही यह विकासशील देशों को समुद्री परिवहन और मत्स्य पालन क्षेत्रों से प्लास्टिक कचरे को कम करने में भी सहायता करता है।
      • साथ ही यह प्लास्टिक के पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण के अवसरों की पहचान भी करता है।
    • समुद्री कचरे से निपटने की इस वैश्विक पहल में भारत समेत 30 देश शामिल हैं।
  • विश्व पर्यावरण दिवस, 2018 की मेजबानी भारत द्वारा की गई थी, जिस दौरान वैश्विक नेताओं ने ‘प्लास्टिक प्रदूषण को हराने’ और इसके उपयोग को पूरी तरह से समाप्त करने का संकल्प लिया था।
  • भारत के लिये विशिष्ट:
    • प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियम, 2016 के मुताबिक, प्लास्टिक कचरे के पृथक्करण, संग्रहण, प्रसंस्करण और निपटान के लिये बुनियादी ढाँचे की स्थापना हेतु प्रत्येक स्थानीय निकाय को उत्तरदायी होना चाहिये।
    • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (संशोधन) नियम 2018 के माध्यम से ‘विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व’ (EPR) की अवधारणा पेश की गई थी।
    • भारत को वर्ष 2022 तक ‘सिंगल यूज़ प्लास्टिक’ से मुक्त करने के लिये देश में ‘सिंगल यूज़ प्लास्टिक’ पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है।

समाधान:

  • उत्पाद डिज़ाइन करना: प्लास्टिक की वस्तुओं की पहचान करना जिन्हें गैर-प्लास्टिक, पुनर्चक्रण योग्य या बायोडिग्रेडेबल सामग्री से बदला जा सकता है, पहला कदम है।
    • देशों को प्लास्टिक मूल्य शृंखला में सतत् आर्थिक प्रथाओं को अपनाना चाहिये।
  • मूल्य निर्धारण: प्लास्टिक सस्ते होते हैं जो पुनर्नवीनीकरण प्लास्टिक को नियोजित करने के लिये कम आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान करते हैं। पर्यावरणीय स्वास्थ्य के साथ मूल्य संरचना को संतुलित करना प्राथमिकता होनी चाहिये।
  • प्रौद्योगिकी और नवाचार: शहरों में प्लास्टिक अपशिष्ट की मात्रा को मापने और निगरानी करने में सरकारों की सहायता के लिये उपकरण और प्रौद्योगिकी विकसित करना।
    • भारत को एशिया-प्रशांत के लिये संयुक्त राष्ट्र का आर्थिक एवं सामाजिक आयोग की 'क्लोज़िंग द लूप' परियोजना जैसी परियोजनाएँ शुरू करनी चाहिये जो समस्या से निपटने हेतु अधिक आविष्कारशील नीति समाधान विकसित करने में शहरों की सहायता करती हैं।
  • प्लास्टिक मुक्त कार्यस्थल को बढ़ावा देना: सभी एकल-उपयोग वाली वस्तुओं को पुनर्चक्रण योग्य वस्तुओं या अधिक सतत् एकल-उपयोग विकल्पों से बदला जा सकता है।
  • निर्माता ज़िम्मेदारी: खुदरा (पैकेजिंग) क्षेत्र में विस्तारित ज़िम्मेदारी लागू की जा सकती है, जहाँ उत्पादक उन उत्पादों को इकट्ठा करने और पुनर्चक्रण के लिये ज़िम्मेदार होते हैं जिन्हें वे बाज़ार में लॉन्च करते हैं।
  • नगरपालिका और सामुदायिक कार्य: समुद्र तट और नदी की सफाई, जन जागरूकता अभियान और डिस्पोज़ेबल प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध और शुल्क।
  • बहु-हितधारक सहयोग: राष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर सरकारी मंत्रालयों को प्लास्टिक कचरा प्रबंधन से संबंधित नीतियों के विकास, कार्यान्वयन और निरीक्षण में सहयोग करना चाहिये।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

  • इसका गठन एक सांविधिक संगठन के रूप में जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 के अंतर्गत सितंबर, 1974 को किया गया।
  • इसके पश्चात् केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के अंतर्गत शक्तियाँ व कार्य सौंपे गए।
  • यह बोर्ड पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों के अंतर्गत पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को तकनीकी सेवाएँ भी उपलब्ध कराता है।
  • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रमुख कार्यों को जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974 तथा वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत वर्णित किया गया है।
    • जल प्रदूषण की रोकथाम, नियंत्रण और उपशमन द्वारा राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में नालों और कुओं की सफाई को बढ़ावा देना।
    • वायु की गुणवत्ता में सुधार और देश में वायु प्रदूषण को रोकने, नियंत्रित करने या कम करने के प्रयास करना।

स्रोत: डाउन टू अर्थ

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