माब लिंचिंग पर कानून बनाए सरकार : सुप्रीम कोर्ट | 18 Jul 2018
चर्चा में क्यों?
गो-रक्षकों और भीड़ द्वारा हिंसा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कठोर टिप्पणियाँ करते हुए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को दिशा-निर्देश जारी किये हैं। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.एम. खानविलकर और जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड की बेंच ने फैसला सुनाते हुए कहा है कि भीड़तंत्र को किसी भी सूरत में क़बूल नहीं किया जा सकता। न्यायालय ने हाल के दिनों में बढ़ रही माब लिंचिंग (भीड़ द्वारा हत्या) को ‘भीड़तंत्र का भयानक कृत्य’ बताया है|
निरोधात्मक, सुधारात्मक और दंडात्मक दिशा-निर्देश
- मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने अपने 45 पेज के फैसले में आश्चर्य व्यक्त किया है कि क्या "भारत जैसे महान गणराज्य की जनसंख्या ने विविध संस्कृति को बनाए रखने के लिये सहिष्णुता का मूल्य खो दिया है?"
- गोरक्षा या बच्चा चोरी के नाम पर लगातार हो रही हिंसक घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए निरोधक, उपचारात्मक और दंडात्मक दिशा-निर्देश जारी किये हैं और कहा है कि राज्य सरकार हर ज़िले में एसपी स्तर के अधिकारी को नोडल अफसर नियुक्त करे जो स्पेशल टास्क फोर्स बनाए|
- DSP स्तर का अफसर भीड़ द्वारा की गई हिंसा और लिंचिंग को रोकने में सहयोग करेगा। एक स्पेशल टास्क फोर्स का गठन किया जाए और यह उन लोगों की खुफिया सूचना इकट्ठा करेगी जो इस तरह की वारदात को अंजाम देना चाहते हैं या फेक न्यूज या हेट स्पीच दे रहे हैं।
- राज्य सरकार ऐसे इलाकों की पहचान करे जहाँ ऐसी घटनाएँ हुई हों और पाँच साल के आँकडे इकट्ठा करे। केंद्र और राज्य आपस में समन्वय रखें। सरकार भीड़ द्वारा हिंसा के खिलाफ जागरूकता का प्रसार करे|
- ऐसे मामलों में आईपीसी की धारा 153 A या अन्य धाराओं में तुरंत केस दर्ज हो और वक्त पर चार्जशीट दाखिल हो तथा नोडल अफसर इसकी निगरानी करे।
- राज्य सरकार दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के तहत भीड़ हिंसा से पीड़ितों के लिये मुआवज़ा योजना बनाए और चोट के मुताबिक मुआवज़ा राशि तय करे। ऐसे मामलों की सुनवाई फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में हो और संबंधित धारा में ट्रायल कोर्ट अधिकतम सज़ा दे। लापरवाही बरतने पर पुलिस अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई हो|
- सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों से चार हफ्ते में अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करने को कहा|
राक्षसी कृत्यों से रहें सावधान
- लिंचिंग और भीड़ हिंसा को "खतरे में डालने" के रूप में वर्णित करते हुए, अदालत ने चेतावनी दी कि फर्जी खबरों, आत्म-घोषित नैतिकता और झूठी कहानियों द्वारा फैलाया गया उन्माद देश के लोगों को "टाइफून-जैसे राक्षस" की तरह बर्बाद कर देगा।
- न्यायालय ने कहा कि वंश, जाति, वर्ग या धर्म के बावजूद सभी व्यक्तियों की रक्षा करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है। अपराध का कोई धर्म नहीं होता और न ही अपराधी का|
- इस संबंध में मुख्य न्यायाधीश ने बताया कि संयुक्त राज्य अमेरिका में लिंचिंग की घटनाएँ इतनी अनियंत्रित हो गई थीं कि मार्क ट्वेन ने अमेरिका को "लिंचरडम संयुक्त राज्य" कहा था। उनका यह कटाक्ष स्पष्ट है|
- जनवरी में गोर-क्षकों द्वारा की गई हिंसा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिवों को नोटिस जारी कर पूछा था कि क्यों न उनके खिलाफ अदालत की अवमानना का मामला चलाया जाए।
- याचिकाकर्त्ता की ओर से पेश वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कोर्ट में कहा कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद ये राज्य हिंसा रोकने में नाकाम रहे हैं और इन राज्यों में गोरक्षा के नाम पर हिंसा की कई घटनाएँ हुई हैं।
- गौरतलब है कि 6 सितंबर, 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक कहा था कि गो-रक्षा के नाम पर हिंसा रुकनी चाहिये। घटना के बाद ही नहीं उससे पहले भी रोकथाम के उपाय किये जाने ज़रूरी हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने कई मौकों पर तोड़ी है अपनी चुप्पी
- भारत के सुप्रीम कोर्ट ने अतीत में कई मौकों पर अपनी चुप्पी तोड़ी है और देश के हित में फैसले दिये हैं|
- अदालत ने राजनीतिक वर्ग की चुप्पी भी तोड़ी है जो आवर्ती अपराध की गंभीरता को स्वीकार करने में विफल रहा है| भीड़ द्वारा हिंसा, विशेष रूप से गाय के नाम पर ज़्यादातर अल्पसंख्यकों, वंचित तथा कमज़ोर वर्ग को लक्षित किया गया है|
- इसलिये अदालत की सराहना की जानी चाहिये, जिसने "लोकतंत्र के भयानक कृत्यों" पर अपना आक्रोश व्यक्त किया है और हिंसा के इन स्वरूपों के खिलाफ स्पष्ट रूप से चेतावनी दी है।
- न्यायालय द्वारा दिये गए सुझावों पर अब विधायिका, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा व्यापक चर्चा की शुरुआत होनी चाहिये|
- इस संबंध में कई सवाल उठेंगे जैसे- भीड़ द्वारा की गई हिंसा को कैसे परिभाषित किया जाएगा? सतर्कता, सांप्रदायिक हिंसा और घृणित अपराध के बीच विभेद, ओवरलैप या अंतःपरिच्छेदन क्या होगा? कानून और उसके कार्यान्वयन में केंद्र और राज्य की भूमिका क्या होगी? क्या एक कानून राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में प्रभावी हो सकता है? आदि|
- ये सभी सवाल इस बात पर ज़ोर देते हैं कि 21वीं शताब्दी में सर्वोच्च न्यायालय को लिंचिंग के लिये एक नया कानून बनाने की आवश्यकता क्यों महसूस की जा रही है। क्या हम इतने असहिष्णु हो गए हैं?
- अशांत होते लोकतंत्र में न्यायिक सक्रियता का क्या असर पड़ता है यह देखने की बात है| यह भी एक विचारणीय बिंदु है कि तमाशबीनों की उदासीनता, अपराध के मूक दर्शकों की संख्या और सोशल मीडिया सहित अपराधियों द्वारा घटना की सार्वभौमिकता इस हिंसक कृत्य को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ती|