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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

उदारवाद

  • 04 Sep 2019
  • 11 min read

चर्चा में क्यों?

ओसाका में G-20 की बैठक से ठीक पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक साक्षात्कार में कहा कि वैश्विक स्तर पर उदारवाद का अंत हो रहा है।

उदारवाद की पृष्ठभूमि :

  • उदारवाद एक राजनीतिक और नैतिक दर्शन है जो स्वतंत्रता, शासित की सहमति और कानून के समक्ष समानता पर आधारित है।
  • उदारवाद आमतौर पर सीमित सरकार, व्यक्तिगत अधिकारों (नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों सहित), पूंजीवाद (मुक्त बाज़ार ), लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, लिंग समानता, नस्लीय समानता और अंतर्राष्ट्रीयता का समर्थन करता है।
  • उदारवाद के मुख्यतः तीन पक्ष हैं:
  1. आर्थिक उदारवाद: इसमें मुक्त प्रतिस्पर्द्धा, स्व-विनियमित बाज़ार, न्यूनतम राज्य हस्तक्षेप और वैश्वीकरण इत्यादि विशेषताएँ शामिल हैं।
  2. राजनीतिक उदारवाद में प्रगति में विश्वास, मानव की अनिवार्य अच्छाई, व्यक्ति की स्वायत्तता और राजनीतिक तथा नागरिक स्वतंत्रता शामिल है।
  3. सामाजिक उदारवाद के अंतर्गत अल्पसंख्यक समूहों के संरक्षण से जुड़े मुद्दे, समलैंगिक विवाह और LGBTQ से संबंधित मुद्दे आते हैं।
  • प्रबोधन काल (Age of Enlightenment) के बाद से पश्चिम में दार्शनिकों और अर्थशास्त्रियों के बीच उदारवाद लोकप्रिय हुआ था।
  • उदारवाद ने वंशानुगत विशेषाधिकार, राज्य धर्म, पूर्ण राजतंत्र, राजाओं के दिव्य अधिकारों जैसे पारंपरिक रूढ़िवादी मानदंडों को प्रतिनिधि लोकतंत्र और कानून के शासन के माध्यम से रूपांतरित करने की मांग की थी।
  • उदारवादियों ने व्यापारिक नीतियों को आसान बनाने, शाही एकाधिकार और व्यापार हेतु अन्य बाधाओं को समाप्त करने की मांग की थी।

उदारवाद का वर्तमान स्वरूप:

  • रूस के अतिरिक्त भारत, चीन, तुर्की, ब्राज़ील, फिलीपींस और यहांँ तक ​​कि यूरोप में भी अब अत्यधिक केंद्रीकृत राजनीतिक प्रणालियांँ प्रचलित हो रही हैं जो उदारवाद की सामान्य विशेषताओं का विरोध कर रही हैं।
  • वर्तमान में इस प्रकार की प्रणालियों के समर्थक मानते हैं कि राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक प्रगति के लिये उदारवादी लोकतंत्र की तुलना में ये प्रणालियांँ बेहतर तरीके से काम कर रही हैं।
  • द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उदारवाद पश्चिम में प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा रहा है लेकिन हाल ही में पश्चिम में भी उदारवाद की स्थिति में गिरावट देखी जा रही है।
  • ब्रिटेन में ब्रेक्ज़िट का जनता द्वारा समर्थन, अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों का समर्थन, हंगरी के राष्ट्रपति विक्टर ऑर्बन और पूर्व इतालवी उपप्रधानमंत्री माटेओ साल्विनी की लोकप्रियता यह प्रदर्शित करती है कि पश्चिम के समाज में भी प्रचलित मूल उदारवाद के स्वरूप में अब परिवर्तन आ रहा है।
  • अमेरिका की नई प्रवासी नीतियों के माध्यम से प्रवासियों को अमेरिका में प्रवेश से रोका जा रहा है साथ ही जर्मनी द्वारा शरणार्थियों को स्वीकार करने की नीतियों से गलत परिणाम निकलने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
  • पोलैंड और हंगरी हिंसा एवं युद्ध से भागे शरणार्थियों के प्रवेश के पक्ष में नहीं हैं तथा लगभग सभी यूरोपीय संघ के सदस्यों का मानना है कि यूरोपीय संघ में शरणार्थियों के प्रवेश से यूरोप के पूर्ण एकीकरण की योजना बुरी तरह प्रभावित होगी।
  • समलैंगिक विवाह को केवल कुछ देशों द्वारा ही मान्यता दी जा रही है, दूसरी ओर समलैंगिकता हेतु कई देशों में मौत की सज़ा का प्रावधान है। LGBTQ (Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, QUEER) के अधिकारों में बहुत धीमी प्रगति देखी जा रही है, जबकि अब यह सिद्ध हो चुका है कि इस प्रकार के लोगों की शारीरिक संरचना प्रकृति द्वारा निर्धारित होती है।
  • कई देशों द्वारा पर्यावरण हित के विरुद्ध नीतियाँ बनाई जा रही हैं इसमें स्वयं के संकीर्ण हितों को वैश्विक जलवायु परिवर्तन से ज़्यादा प्राथमिकता दी जा रही है। हाल ही में ब्राज़ील के वनों में लगी आग हेतु सरकार की नीतियों को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है।
  • पर्यावरण संबंधी अभिसमयों की प्रकृति गैर-बाध्यकारी होने के कारण कई देश इस प्रकार के अभिसमयों से अलग होते जा रहे हैं। पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का अलग होना संरक्षणवादी नीतियों को प्रदर्शित करता है।

वर्तमान समय में उदारवाद में गिरावट के कारण:

  • वर्ष 1991 में साम्यवाद के पतन के समय उदारवाद का प्रभाव अपने चरम पर पहुंँच गया था। इस समय तक उदारवाद की सफलता निर्विवाद रही थी और भविष्य में भी उदारवाद का कोई ठोस विकल्प नहीं दिखाई दे रहा था।
  • वर्ष 2008-2009 के वित्तीय संकट ने उदारवादी आर्थिक व्यवस्था को चुनौती दी, उस समय अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं के पास इस संकट का कोई भी समाधान नहीं था। उस समय की आर्थिक विकास दर मात्र 1% से 2% तक रह गई थी। इस आर्थिक संकट से उबरने में विश्व को काफी समय लग गया।
  • उदारवादी व्यवस्था दो स्तंभों पर टिकी हुई है- एक स्तंभ व्यक्ति की स्वतंत्रता है (उदारवादी इस सिद्धांत को अपना सर्वोच्च मूल्य मानते हैं) और दूसरा स्तंभ आर्थिक विकास तथा सामाजिक प्रगति हेतु प्रतिबद्धता है।
  • उदारवाद में इन दोनों स्तंभों को एक-दूसरे से संबंधित माना जाता है। वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी समस्या यही है कि इस व्यवस्था के मूल सिद्धांत वैध नहीं रह गए हैं, वैश्विक आर्थिक विकास की प्रकृति प्रगतिशील तो है लेकिन समाज में समावेशी विकास का अभाव दिख रहा है। उदाहरणस्वरूप प्रति व्यक्ति आय तो बढ़ रही है लेकिन गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की प्रभावशीलता पर्याप्त नहीं है।
  • इस प्रकार की स्थितियों के मद्देनज़र विश्व द्विपक्षीय और गुटबाज़ी में फँसता जा रहा है। यूरोपीय संघ, अफ्रीका समूह, आसियान जैसे समूह कहीं-न-कहीं उदारवाद के मूल को क्षति पहुँचा रहे हैं।
  • शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ की शक्ति को संतुलित करने के लिये बनाए गए नाटो जैसे संगठन की वर्तमान प्रासंगिकता समझ से परे है। शायद इस प्रकार के संगठन केवल क्षेत्रीयता को बढ़ावा दे रहे हैं क्योंकि इस प्रकार के संगठनों का कोई निश्चित ध्येय तक नहीं निर्धारित किया गया है।
  • आज उदारवाद अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहा है क्योंकि पुनर्जीवित राष्ट्रवाद इसके सम्मुख एक स्थायी खतरा उत्पन्न कर रहा है। इसी राष्ट्रवाद के स्वरूप में विभिन्न देशों में कट्टरपंथ का उदय हो रहा है। इस प्रकार के विचारों से घिरी सरकारें अपने देश को संधारणीय और वैश्विक हितों को नज़रअंदाज़ करते हुए प्राथमिकता देने वाली नीतियों का निर्माण कर रहे हैं।
  • उदारीकरण के बाद बहु-राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कंप्यूटर, रोबोट और सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग स्थानीय रोज़गार को प्रभावित कर रहा है, इस कारण से स्थानीय उद्योगों और संस्थाओं द्वारा उदारीकरण का विरोध किया जा रहा है।

आगे की राह:

  • कई उदार अर्थशास्त्रियों और पर्यावरणविदों के अनुसार, पृथ्वी के संसाधनों की सीमित क्षमता है और यह लगातार बढ़ती मानव आबादी तथा उनकी बढ़ती ज़रूरतों को समायोजित नहीं कर सकती है।
  • प्रकृति हमारी सभ्यता के वर्तमान विकास को बनाए नहीं रख सकती है और इसलिये सरकार की नीतियों में परिवर्तन आवश्यक है। अतः भौतिक चीज़ो का पीछा करने के बजाय एक खुशहाल और संतुष्ट जीवन जीने का लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिये।
  • समावेशी नीतियों के निर्माण के साथ ही इनके क्रियान्वयन हेतु मानक स्थापित किये जाएँ साथ ही उदारवाद के मुख्य सिद्धांत सामाजिक कल्याण का गंभीरता से पालन किया जाए।
  • उदारवाद के अभिजात्यकरण को सीमित किया जाए क्योंकि इस प्रकार की स्थिति में सैधांतिक रूप से उदारवाद प्रगतिशील प्रतीत हो रहा है लेकिन व्यावहारिक रूप से वह काफी पिछड़ा हुआ है।
  • उदारीकरण को बढ़ाया जाना चाहिये जिससे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों का समावेशी विकास किया जा सके।

स्रोत: द हिंदू

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