भारतीय राजनीति
संविधान पीठ ने कहा उप-राज्यपाल चुनी हुई सरकार की “सहायता और सलाह” मानने को बाध्य
- 05 Jul 2018
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चर्चा में क्यों?
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने लेफ्टिनेंट-गवर्नर (Lieutenant-Governor-LG) और दिल्ली सरकार के बीच सत्ता की सीमाओं को चित्रित करते हुए कहा कि लेफ्टिनेंट-गवर्नर भूमि, पुलिस और पब्लिक आर्डर के मामलों को छोड़कर दिल्ली सरकार के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकते और मंत्रिपरिषद की “सहायता और सलाह” उन पर बाध्यकारी है|
निर्णय के महत्त्वपूर्ण बिंदु
- यह फैसला एक संविधान पीठ द्वारा दिया गया जिसमें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.के. सीकरी, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण शामिल थे।
- दिल्ली सरकार ने 4 अगस्त, 2016 के दिल्ली हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी जिसमें उप-राज्यपाल (लेफ्टिनेंट गवर्नर) को प्रशासनिक हेड बताते हुए कहा गया था कि वह मंत्रिमंडल की सहायता और सलाह मानने के लिये बाध्य नहीं हैं।
- कोर्ट ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को बदलते हुए कहा कि लेफ्टिनेंट-गवर्नर को कोई भी स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं है। उन्हें या तो मंत्रिपरिषद की 'सहायता और सलाह' पर कार्य करना होगा या उनके द्वारा राष्ट्रपति को संदर्भित किसी मामले पर राष्ट्रपति द्वारा लिये गए निर्णय को लागू करना होगा|
- पीठ ने कहा, अनुच्छेद 163 की भाषा अनुच्छेद 239AA के उपबंध चार जैसी ही है परंतु इसमें सिर्फ इतना ही अंतर है कि प्रविष्टि 1, 2 और 18 के संबंध में विधानसभा कानून नहीं बना सकती है जिसके लिये उप-राज्यपाल के पास विशेषाधिकार है| अत: उप-राज्पाल के पास किसी भी राज्य के राज्यपाल से अधिक अधिकार हैं|
- पीठ ने अपनी अलग किंतु समेकित राय में लेफ्टिनेंट-गवर्नर को सरकार के हर "मामूली" विवाद को राष्ट्रपति के पास भेजने के खिलाफ चेतावनी भी दी।
- न्यायालय ने कहा, उप-राज्यपाल को सरकार के साथ सौहार्द्रपूर्ण तरीके से काम करना चाहिये। फैसले में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया कि उप-राज्यपाल यांत्रिक रूप से सभी मामले स्व-विवेक के बिना राष्ट्रपति को संदर्भित नहीं कर सकते हैं।
- न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि निर्णय लेने का वास्तविक अधिकार निर्वाचित सरकार के पास है क्योंकि वह जनता के प्रति जवाबदेह है| लेफ्टिनेंट-गवर्नर को निर्वाचित सरकार की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करना चाहिये| न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “दिल्ली की विशेष स्थिति के प्रकाश में दिल्ली और केंद्र के बीच संतुलन की आवश्यकता है।”
- न्यायमूर्ति अशोक भूषण ने अपने अलग फैसले में कहा कि संविधान की व्याख्या समय की आवश्यकता के आधार पर होनी चाहिये| निर्वाचित सरकार की राय का सम्मान किया जाना चाहिये।
- न्यायमूर्ति भूषण ने कहा, कि संविधान ने यह नहीं कहा कि सभी मामलों में उप-राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त की जानी चाहिये।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं
- मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि, नौ जजों की संविधान पीठ के फैसले के आलोक में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 239AA के मुताबिक उप-राज्यपाल मंत्रिमंडल के कार्यों और फैसलों को मानने के लिये बाध्य हैं और वे स्वतंत्र रुप से तब तक काम नहीं कर सकते हैं जब तक संविधान उन्हें इसकी अनुमति नहीं देता है।
- पीठ ने कहा, दिल्ली विशेष अधिकार प्राप्त केंद्रशासित प्रदेश है। दिल्ली के बारे में फैसला लेने और कार्यकारी आदेश जारी करने का अधिकार केंद्र सरकार को है। दिल्ली सरकार किसी तरह के विशेष कार्यकारी अधिकार का दावा नहीं कर सकती।