अधिकरणों के लिये अधिक स्वायत्तता की मांग | 30 Oct 2017
चर्चा में क्यों?
‘भारत में अधिकरणों के सांविधिक ढाँचे का मूल्यांकन’ नामक रिपोर्ट में विधि मंत्रालय ने यह उल्लेख किया था कि यद्यपि प्रतिवर्ष दर्ज़ किये जाने वाले मामलों में अधिकरणों द्वारा उनके निराकरण की दर 94% है, परन्तु उनके लंबित होने की दर भी सर्वाधिक है। विदित हो कि अधिकरण (Tribunals) भारत की न्याय व्यवस्था के स्तंभों में से एक है।
विधि आयोग की सिफारिशें
- अधिकरणों में होने वाली नियुक्तियों और उनकी कार्य-प्रणालियों को कार्यपालिका के प्रभाव से मुक्त रखा जाना चाहिये।
- विभिन्न केन्द्रीय अधिकरणों में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और न्यायिक सदस्यों की नियुक्ति के लिये भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया जाना चाहिये।
- अधिकरणों में नियुक्तियाँ करते समय यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि इनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में स्वतंत्रता को बरकरार रखा जाएगा।
- विधि मंत्रालय के अंतर्गत एक सामान्य नोडल एजेंसी का गठन किया जाए, ताकि अधिकरणों के कार्यों की जाँच की जा सके और अधिकरण के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति, पद और सेवा शर्तों में एकरूपता को भी सुनिश्चित किया जा सके।
- दरअसल, वर्तमान में अधिकरण अनेक सरकारी विभागों के अंतर्गत कार्य करते हैं। अतः जब भी उनके समक्ष वादकारी (litigant) के रूप में ये मंत्रालय आते हैं तो हो सकता है कि वे उनके खिलाफ कोई सख्त निर्णय न लें। इस समय अधिकरण और इसके अपीलीय फोरम (appellate forum) द्वारा दिये गए आदेश को ही अंतिम माना जाता है।
- अधिकरणों के निर्णयों की समीक्षा की शक्ति उच्च न्यायालय के पास होनी चाहिये। संविधान के अंतर्गत उच्च न्यायालयों को दी गई न्यायिक समीक्षा की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय के समान ही है। यह संविधान की मूल विशेषताओं में से एक है और इसमें संविधान संशोधन के माध्यम से ही परिवर्तन किया जा सकता है।
- विभिन्न दलों को उच्च न्यायालय की खंडपीठ के समक्ष अधिकरण के आदेश को चुनौती देने की अनुमति प्रदान करना, क्योंकि इसे अधिकरण अथवा इसके अपीलीय अंग से अधिक शक्तियाँ प्राप्त हैं। दरअसल, वर्तमान में दलों को अधिकरण के आदेश को उच्च न्यायालय में चुनौती देने की अनुमति नहीं है, अतः वे सीधे ही सर्वोच्च न्यायालय में जाते हैं।
- इस संबंध में आयोग ने सैन्य बल अधिकरण (Armed Forces Tribunal AFT) मामले का हवाला दिया है। इसका कहना है कि ऐसे विवाद जिनमें सैन्य बल अधिकरण को न्याय करने का अधिकार प्राप्त है, उसके विरुद्ध दलों को अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय का रुख करने का अधिकार होना चाहिये, क्योंकि अनुच्छेद 136 के तहत कोई भी उपाय वैधानिक अपील के तौर पर नहीं है।
- देश के विभिन भागों में अधिकरणों की पीठ होनी चाहिये, ताकि प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र के लोगों को आसानी से न्याय मिल सके।
- मामलों का निर्णय इस प्रकार से करना जो अधिकरण के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सदस्यों की पुनर्नियुक्ति को सुनिश्चित करेगा।
- आदर्श रूप में अधिकरणों की पीठें उन सभी स्थानों में मौजूद होनी चाहिये जहाँ पर भी उच्च न्यायालय स्थित हैं। सभी न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर होने की स्थिति में यह आवश्यक है कि मामले के निपटारे के लिये ज़मीनी स्तर पर एक समान रूप से प्रभावी वैकल्पिक प्रक्रिया सुझाई जाए। इसे प्रत्येक अधिकरण के कार्य की मात्र को देखते हुए राज्य स्तरीय बैठकों के माध्यम से सुनिश्चित कराया जा सकता है। एक बार यदि ऐसा हो जाता है तो न्याय तक पहुँच को सुनिश्चित किया जा सकता है।
क्या हैं अधिकरण?
- अधिकरण न्याय प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण और विशेष भूमिका निभाते हैं।
- ये याचिकाओं के बोझ तले दबे न्यायालयों के बोझ को कम करने का प्रयास करते हैं।
- ये पर्यावरण, सैन्य बलों, कर और प्रशासनिक मुद्दों से संबंधित विवादों की सुनवाई करते हैं।
- अधिकरणों को संविधान के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के माध्यम से संविधान में जोड़ा गया था। इसमें केवल दो अनुच्छेद हैं। इसके अनुच्छेद 323-A में प्रशासनिक अधिकरणों, जबकि अनुच्छेद 323 –B में अन्य मामलों के लिये बनाए गए प्रधिकरनों को शामिल किया गया है। सामान्य शब्दों में अधिकरण सामान्य क्षेत्राधिकार के न्यायालय नहीं है, अपितु उनका एक विशेष और पूर्व परिभाषित कार्यक्षेत्र है।