परिवार कानून सुधार पर विधि आयोग का परामर्श पत्र | 01 Sep 2018
चर्चा में क्यों?
हाल ही में विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र ज़ारी करते हुए कहा है कि वर्तमान समय में समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय।
प्रमुख बिंदु:
- अपनी सिफारिशों में विधि आयोग ने कहा कि सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता है कि समानता के प्रति हमारा आग्रह क्षेत्रीय अखंडता के लिये ही खतरा बन जाए।
- साथ ही यह भी कहा कि एक एकीकृत राष्ट्र को "समानता" की आवश्यकता नहीं होती है। इस तरह हमें मानव अधिकारों पर सार्वभौमिक और निर्विवाद तर्कों के साथ अपनी विविधता को सुलझाने का प्रयास करना चाहिये।
- चूँकि अंतर किसी मज़बूत लोकतंत्र में हमेशा ही भेदभाव नहीं दर्शाता है। 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द का अर्थ केवल तभी चरितार्थ होता है जब यह किसी भी प्रकार के अंतर की अभिव्यक्ति को आश्वस्त करता है।
- धार्मिक और क्षेत्रीय दोनों ही विविधता को बहुमत के शोरगुल में कम नहीं किया जा सकता है, साथ ही धर्म के भीतर भेदभावपूर्ण प्रथाओं को वैधता प्राप्त करने के लिये उसे विश्वास के जामा के पीछे छिपाना नहीं चाहिये।
सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करना:
- आयोग ने आगे के लिये रास्ता बताते हुए कहा कि समान नागरिक संहिता समस्या का समाधान नहीं है बल्कि सभी व्यक्तिगत कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की आवश्यकता है ताकि उनके पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य प्रकाश में आ सकें और संविधान के मौलिक अधिकारों पर इनके नकारात्मक प्रभाव का परीक्षण किया जा सके।
- क्योंकि कानूनों को संहिताबद्ध करने के परिणामस्वरूप व्यक्ति कुछ हद तक सार्वभौमिक सिद्धांतों तक पहुँच सकता है जो समान संहिता की बजाय समानता को लागू करने को प्राथमिकता देता है।
- यह देखते हुए कि विवाह और तलाक के मामलों को अतिरिक्त न्यायिक रूप से सुलझाया जा सकता है, यह कानून के पूरी तरह से उपयोग करने के कई रूपों को हतोत्साहित करेगा।
- इसने विवाह और तलाक के लिये कुछ उपायों का भी सुझाव दिया जो सभी धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों में समान रूप से स्वीकार किया जाना चाहिये।
- इनमें लड़कों एवं लड़कियों के विवाह लिये 18 वर्ष की आयु को न्यूनतम मानक के रूप में स्वीकार करना ताकि वे बराबरी की उम्र में विवाह कर सकें, व्यभिचार को पुरुष एवं महिलाओं के तलाक के लिये आधार बनाना और तलाक की प्रक्रिया को सरल बनाने जैसे सुझाव शामिल हैं।