सामाजिक न्याय
केरल में छात्र आंदोलनों पर प्रतिबंध
- 27 Feb 2020
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प्रीलिम्स के लिये:असम गण परिषद, असम समझौता मेन्स के लिये:छात्र आंदोलनों के पक्ष और विपक्ष में तर्क |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने विभिन्न कॉलेजों और स्कूलों के प्रबंधन द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कॉलेज एवं स्कूल परिसर में सभी प्रकार के राजनीतिक आंदोलनों पर प्रतिबंध लगा दिया है।
प्रमुख बिंदु
- सुनवाई के दौरान न्यायालय ने कहा कि शैक्षणिक संस्थाएँ शिक्षण संबंधी गतिविधियों के लिये होती हैं न कि विरोध प्रदर्शन के लिये और किसी को भी अन्य छात्रों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने का हक नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि “शिक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और किसी को भी उस अधिकार का उल्लंघन करने का हक नहीं है।”
- छात्र राजनीति पर प्रतिबंध लगाने के उच्च न्यायालय के निर्णय की चौतरफा आलोचना की जा रही है। छात्र संगठनों का कहना है कि “यह निर्णय उनके मौलिक अधिकारों का हनन करता है। छात्र राजनीति/आंदोलन ही विद्यार्थियों में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को स्थापित करने में अहम भूमिका अदा करते हैं।”
भारत में छात्र आंदोलन
- भारत के शैक्षणिक संस्थानों में राजनीति का जुड़ाव भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के समय से रहा है। विश्वविद्यालयों को राजनीति की नर्सरी भी कहा जाता है।
- भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान विश्वविद्यालय सर्वाधिक सक्रिय राजनीतिक अखाड़ों में से एक थे। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के विरुद्ध जब भी कोई आंदोलन छेड़ा तो उनके पास हमेशा छात्रों के लिये एक राजनीतिक संदेश होता था।
- आज़ाद भारत में भी देश में कई महत्त्वपूर्ण छात्र नेता हुए। 1960 से 70 के दशक में भारतीय छात्र और आंदोलनों और राजनीति में आदर्शवाद की भावना काफी प्रबल थी।
- वर्ष 1974 में जेपी आंदोलन के दौरान भारतीय छात्र भ्रष्टाचार और राजनेताओं तथा काला बाज़ार के मध्य संबंध का विरोध करने के लिये एक साथ सड़कों पर आए। देखते-ही-देखते यह आंदोलन मुख्य रूप से हिंदी पट्टी के राज्यों में काफी व्यापक हो गया।
- 25 जून, 1975 को तत्कालीन सरकार ने आपातकाल घोषित कर दिया। इस दौरान आपातकाल का विरोध करने वालों में विभिन्न छात्र नेताओं की अहम भूमिका थी। देश भर में कई विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों और संकाय सदस्यों ने व्यापक स्तर पर भूमिगत विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया।
- इस दौरान तत्कालीन दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (DUSU) के अध्यक्ष अरुण जेटली और छात्र संघर्ष समिति के अध्यक्ष जय प्रकाश नारायण सहित 300 से अधिक छात्र संघ नेताओं को जेल भेज दिया गया।
- असम में बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों के विरुद्ध वर्ष 1979 में ‘ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन’ (All Assam Students Union-AASU) ने एक आंदोलन की शुरुआत की। वर्ष 1971 में जब पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) के खिलाफ पाकिस्तानी सेना की हिंसक कार्यवाही की शुरुआत हुई तब लाखों की संख्या में लोग अवैध रूप से असम में शरण लेने लगे। इन अवैध प्रवासियों के कारण असम के मूल निवासियों में भाषायी, सांस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो गई जिससे इस आंदोलन की शुरुआत हुई।
- असम गण परिषद के तत्कालीन नेता और आदोलन के पश्चात् हुए असम समझौते के हस्ताक्षरकर्त्ता प्रफुल्ल महंत वर्ष 1985 में 35 वर्ष की उम्र में असम के मुख्यमंत्री भी बने।
- इस प्रकार भारत में छात्र आंदोलनों का एक लंबा और गौरवशाली इतिहास मौजूद है, जिन्होंने देश को कई बड़े राजनेता प्रदान किये हैं।
छात्र आंदोलन के पक्ष में तर्क
- भारत के कुल मतदाताओं में युवा मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग मौजूद है, जिसके कारण यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि उन्हें देश के राजनीतिक मुद्दों की संपूर्ण जानकारी हो।
- राजनीतिक निर्णय प्रत्यक्ष तौर पर देश के नागरिकों को प्रभावित करते हैं। और देश का नागरिक होने के नाते छात्रों का यह हक है कि वे अनुचित राजनीतिक निर्णयों और मुद्दों को प्रभावित कर सकें।
- राजनीति छात्रों को उनके अधिकारों के समुचित उपयोग को लेकर जागरूक करती है।
- यदि छात्रों को इंजीनियर या डॉक्टर बनने के लिये तैयार किया जा सकता है, तो उन्हे एक अच्छा राजनीतिज्ञ बनने के लिये भी तैयार किया जा सकता है।
- राजनीति में अपराधी तत्त्वों के प्रवेश को रोकने के लिये यह आवश्यक है कि विद्यार्थी जीवन से ही छात्रों को राजनीति की शिक्षा प्रदान की जाए।
छात्र आंदोलन के विपक्ष में तर्क
- मौजूदा शिक्षा महज सूचनात्मक न होकर प्रभावात्मक अधिक है, जिसके कारण शिक्षकों द्वारा छात्रों को राजनीतिक रूप से प्रभावित करने का संदेह बना रहता है।
- कुछ प्रशासकों का मानना है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अनुशासन बनाए रखने के लिये छात्रसंघ चुनाव बंद कर देना चाहिये। इससे विश्वविद्यालय परिसरों में राजनीतिक दलों का दखल बढ़ता है और शिक्षा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- छात्र संघों को उनके मूल राजनीतिक दलों द्वारा समर्थन दिया जाता है। अतः अधिकांश समय वे छात्र हितों के स्थान पर अपने दलगत हितों के लिये कार्य करते हैं। यही छात्र संगठन राजनैतिक विरोधियों के लिये आपराधिक गतिविधियों में शामिल रहते हैं।
- शैक्षणिक संस्थानों के राजनीतिकरण का परिणाम प्रायः यह होता है कि अकादमिक नियुक्तियाँ दलगत आधार पर होने लगती हैं और पाठ्यक्रम का निर्धारण पार्टी लाइन के आधार पर किया जाने लगता है।
निष्कर्ष
देश के लगभग सभी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में छात्रों की काफी अहम भूमिका रही है। ये आंदोलन कभी विशुद्ध रूप से छात्र मुद्दों तो कभी आम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित थे। छात्र आंदोलनों ने देश को कई प्रमुख राजनेता और समाज सुधारक दिये हैं। अतः कहा जा सकता है कि छात्र राजनीति और आंदोलनों के महत्त्व को पूर्णतः नज़रअंदाज़ करना सही नहीं है। हालाँकि छात्र आंदोलनों के साथ कई नकारात्मक पक्ष भी निहित हैं, किंतु इन पर विचार विमर्श कर इन्हें दूर किया जा सकता है।