अंतर्राष्ट्रीय संबंध
कर्नाटक ने पारित किया ‘अंधविश्वास निरोधक विधेयक’
- 28 Sep 2017
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चर्चा में क्यों?
हाल ही में कर्नाटक में मंत्रिमंडल ने धार्मिक विश्वास की आड़ में होने वाले विवादास्पद ‘मडे स्नान’ और ‘नग्न परेड’ पर प्रतिबंध लगाने के उद्देश्य से ‘अंधविश्वास निरोधक विधेयक’ को मंज़ूरी दे दी है। इस विधेयक से वास्तु और ज्योतिषशास्त्र को बाहर रखा गया है।
क्या है “मडे स्नान”?
- विदित हो कि कर्नाटक के दक्षिण कनारा ज़िले के कुक्के सुब्रमन्या मंदिर में प्रत्येक वर्ष के अंत में ‘चंपा शास्ती’ या ‘सुब्रमन्या शास्ती’ का भव्य आयोजन किया जाता है। इस मंदिर में नौ सिरों वाले साँप की मूर्ति स्थापित की गई है जिसको श्रद्धालु सुब्रमन्या भगवान मानकर पूजा करते हैं।
- विवाद का विषय यह है कि प्रत्येक वर्ष जब यह आयोजन होता है तो केले के पत्ते पर लोगों के छोड़े हुए जूठन पर दलित समुदाय के लोग लोटते हैं और इसे मडे स्नान के नाम से जाना जाता है।
- ऐसी मान्यता है कि जूठन पर लेटने से लोगों की सभी सारी समस्याएँ दूर हो जाएंगी और बीमारियों से उन्हें मुक्ति मिल जाएंगी।
कैसे शुरू हुई यह परम्परा?
- दरअसल, सदियों पहले यह तीर्थस्थल साँपों का बसेरा हुआ करता था और ऐसा माना जाता है कि साँपों की बांबियों से निकलने वाले कीचड़ से बीमारियाँ दूर होती हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इस परंपरा की शुरुआत कुछ इस तरह हुई होगी, लेकिन बाद में अंधविश्वास और कुरीतियों के कारण इसका स्वरुप विकृत होता चला गया।
- उल्लेखनीय है कि वर्ष 2012 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने ‘मडे स्नान’ रिवाज़ के स्वरूप में बदलाव लाते हुए ‘येदे स्नान’ की अनुमति दी थी। ‘येदे स्नान’ में भक्त लोगों के छोड़े भोजन के बजाय प्रसाद पर लोट सकते हैं, हालाँकि यह परम्परा आज भी अपने पुराने स्वरूप में जारी है।
क्यों ज़रूरी है इस परम्परा का निर्मूलन?
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(ए) के अनुसार "यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिकता और मानवतावाद की भावना को बढ़ावा दें”, जबकि अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार, अनुच्छेद 19 में स्वतंत्रता का अधिकार तथा अनुच्छेद 21 में जीने का अधिकार तथा व्यक्तिगत आज़ादी की बात की गई है।
- यह परम्परा गरिमामय जीवन के खिलाफ होने के साथ-साथ लोगों को मूल कर्तव्यों के पालन से विमुख भी करती है। साथ ही यह परम्परा छूआ-छूत को भी बढ़ावा देती है।
- जहाँ तक आस्था और श्रद्धा का सवाल है तो इसमें कोई शक नहीं है कि इनसे जीवन का उन्नयन होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम कूप-मंडूक बन जाएँ और तर्क तथा विवेक को तिलांजलि देकर अंधविश्वास एवं कुरीतियों को बढ़ावा दें।