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कृषि

भारत में कृषि क्षेत्र से संबंधित मुद्दे

  • 12 Jan 2021
  • 9 min read

चर्चा में क्यों?

दिल्ली की सीमाओं पर हज़ारों किसानों द्वारा किये जा रहे विरोध ने एक बार पुनः भारत में कृषि क्षेत्र से संबंधित मुद्दों को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।

  • किसानों द्वारा सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन किया जा रहा है।

प्रमुख बिंदु

प्रदर्शनकारी किसानों की प्रमुख चिंताएँ

  • किसानों का मत है कि सरकार द्वारा लाए गए ये कानून देश में गेहूँ और धान के ओपन-एंडेड प्रोक्योरमेंट यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के आधार पर की जाने वाली खरीद प्रणाली के अंत का संकेत दे रहे हैं।
  • आधुनिक खुदरा और ई-कॉमर्स क्षेत्रों में संलग्न कॉरपोरेट्स द्वारा फसलों की स्टॉकिंग भी किसानों के लिये एक विशेष मुद्दा है।

कृषि भूमि का आकार

  • घटता क्षेत्र: आँकड़ों की मानें तो भारत में कृषि योग्य भूमि के आकार में कमी आ रही है, जहाँ एक ओर वर्ष 2010-11 में यह 159.5 मिलियन हेक्टेयर थी, वहीं वर्ष 2015-16 में घटकर 157 मिलियन हेक्टेयर रह गई।
  • जोत इकाइयों  की संख्या में वृद्धि: कृषि उत्पादन के लिये उपयोग की जाने वाली कुल भूमि इकाइयों में वर्ष 2010-11 की तुलना में वर्ष 2015-16 में 5 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। देश में कृषि उत्पादन हेतु उपयोग की जाने इकाइयों की कुल संख्या वर्ष 2010-11 के 138 मिलियन से बढ़कर 2015-16 में 146 मिलियन हो गई है।
    • इसके कारण किसानों की औसत जोत के आकार में कमी आई है, जो कि 1.2 हेक्टेयर से घटकर लगभग 1.08 हेक्टेयर हो गई है।
  • बलपूर्वक विक्रय: तुलनात्मक रूप से छोटी जोत के कारण प्रायः प्रति इकाई उत्पादन भी काफी कम होता है, जिसके कारण छोटे और सीमांत किसान प्रायः मजबूरन अपनी उपज बेचने के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
    • यह विशेष रूप से उन राज्यों में देखा जाता है जहाँ कृषि उपज विपणन समिति (AMPC) मंडियों का नेटवर्क काफी कमज़ोर है।
  • आधुनिक तकनीक तक पहुँच का अभाव: भारत के विशाल ग्रामीण क्षेत्र में छोटे जोतधारकों तक नई तकनीकों और प्रथाओं को पहुँचाना और उन्हें आधुनिक इनपुट तथा आउटपुट बाज़ारों के साथ एकीकृत करना वर्तमान में भारत के कृषि क्षेत्र के लिये एक बड़ी चुनौती है।

किसानों की तुलना में खेत मज़दूरों की अधिक संख्या

  • किसान आमतौर पर खेत का मालिक होता है, जबकि एक खेत पर कई कर्मचारी और मज़दूर भी काम करते हैं।
  • कृषि क्षेत्र में रोज़गार: श्रम ब्यूरो के हालिया अनुमानों के मुताबिक, भारत का 45 प्रतिशत कार्यबल कृषि में कार्यरत है।
  • कृषि क्षेत्र में मज़दूर: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, कुल कृषिकार्यबल में से लगभग 55 प्रतिशत कृषि मज़दूर हैं।
  • मज़दूरों के लिये सहायता का अभाव: खेती के माध्यम से विकास को गति देना या विकास की गति को बनाए रखना अपेक्षाकृत कठिन होता है, क्योंकि खेती करने वाले मज़दूरों को खेती में निवेश के लिये कोई नीतिगत सहायता या प्रोत्साहन नहीं मिलता है।
  • बीज किट, उर्वरक, कीटनाशक, कृषि यंत्र, सूक्ष्म सिंचाई, भूमि विकास सहायता आदि जैसे सभी लाभ केवल उन लोगों को प्राप्त होते हैं, जो खेत पर अपना मालिकाना हक साबित कर सकते हैं।

कृषि क्षेत्र में निवेश की कमी

  • अर्थव्यवस्था में कुल सकल पूंजी निर्माण (GCF) के प्रतिशत के रूप में कृषि क्षेत्र में सकल पूंजी निर्माण (GCF) वित्तीय वर्ष 2011-12 के 8.5 प्रतिशत से गिरकर वित्तीय वर्ष 2018-19 में 6.5 प्रतिशत पर पहुँच गया है। इसका मुख्य कारण कृषि क्षेत्र में निजी निवेश की हिस्सेदारी लगातार कम होना है। 
  • यद्यपि कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी हो रही है, किंतु यह बढ़ोतरी इस क्षेत्र में विकास की गति को बनाए रखने के लिये पर्याप्त नहीं है।

सब्सिडी और इससे संबंधित मुद्दे

  • कृषि क्षेत्र के लिये मंज़ूर की गई अधिकांश सब्सिडी व्यवसायों को दी जा रही है। खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों और कोल्ड चेन परियोजनाओं को दी जाने वाली सब्सिडी इसका मुख्य उदाहरण है।
  • भारतीय अंतर्राष्‍ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद के आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ICRIER-OECD) की रिपोर्ट के मुताबिक, विपणन संबंधी प्रतिगामी नीतियों (घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय दोनों) और भंडारण, परिवहन आदि से संबंधित बुनियादी ढाँचे की कमी के कारण किसानों के समर्थन में ढेर सारी योजनाएँ होने और उन्हें सब्सिडी देने के बावजूद भारतीय किसानों को प्रायः नुकसान का सामना करना पड़ता है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और संबंधित मुद्दे

  • चयनात्मक खरीद: सरकार द्वारा 23 फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की घोषणा की जाती है, जबकि सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) संबंधी आवश्यकताओं, जो कि लगभग 65 मिलियन टन है, को पूरा करने के लिये बड़ी मात्रा में केवल गेहूँ और धान (चावल) की ही खरीद की जाती है।
  • MSP दरों में स्थिरता: कई किसान कार्यकर्त्ता यह मानते हैं कि सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) दरों में प्रतिवर्ष जो वृद्धि की जाती है, वह उत्पादन लागत में होने वाली वृद्धि जितनी नहीं होती है, जिसके कारण यह किसानों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने में भी सक्षम नहीं होती है।
  • असमान पहुँच: इस योजना का लाभ सभी किसानों और फसलों तक एक समान रूप से नहीं पहुँचता है। देश में ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहाँ इस योजना का क्रियान्वयन काफी कमज़ोर है, उदाहरण के लिये पूर्वोत्तर क्षेत्र।
  • अवैज्ञानिक अभ्यास: न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) कृषि क्षेत्र में अवैज्ञानिक अभ्यास को बढ़ावा देता है, जिसके तहत कृषि में प्रयोग होने वाले संसाधनों जैसे- मिट्टी और भूमिगत जल पर काफी अधिक दबाव होता है।

आगे की राह

  • यदि भारत को खरीद आधारित सहायता प्रणाली को समाप्त करना है, तो एक अधिक आकर्षक आय सहायता योजना की आवश्यकता होगी, इसके अलावा कृषि क्षेत्र के बुनियादी ढाँचे में निजी और सार्वजानिक निवेश को बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (RKVY) के तहत राज्यों को दिये गए प्रोत्साहन के कारण कई राज्यों में कृषि क्षेत्र में होने वाले खर्च में बढ़ोतरी हुई है। राज्यों को ऐसी योजनाओं के लिये दी जाने वाली सहायता में वृद्धि करनी चाहिये। 
  • कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों पर केंद्रित अनुसंधान के माध्यम से बेहतर बीज विकसित किये जा सकते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण उच्च तापमान की चुनौती का सामना करने की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण होंगे।
  • कृषि क्षेत्र से संबंधित समस्याओं और मुद्दों को संबोधित करने के लिये आवश्यक है कि लोकतांत्रिक मानदंड और प्रक्रियाओं जैसे वाद-विवाद, हितधारकों के साथ वार्ता और कृषि क्षेत्र से संबंधित नीति के सभी पहलुओं की विस्तृत संसदीय जाँच आदि का पालन किया जाए।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

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