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क्या व्यभिचार (Adultery) कानून में महिला को भी दोषी माना जाए?

  • 09 Dec 2017
  • 6 min read

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने किसी विवाहित महिला के गैर-पुरुष के साथ अवैध संबंधों से जुड़े कानूनी प्रावधान (IPC-सेक्शन-497) को असंवैधानिक करार दिये जाने संबंधी एक याचिका को लेकर केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब देने को कहा है। इस प्रकार उच्चतम न्यायालय औपनिवेशिक काल के इस कानून की संवैधानिक वैधता पर विचार करना चाह रहा है। हालाँकि इससे पहले शीर्ष अदालत ने 1954,1985 और 1988 में ऐसे ही मामलों में याचिका को खारिज़ कर दिया था।

क्या है व्यभिचार संबंधी कानून (भारतीय दंड संहिता की धारा-497)?

  • आईपीसी की इस धारा के तहत अगर कोई गैर पुरुष (पति के अलावा) किसी विवाहिता के साथ उसकी सहमति से संबंध बनाता है तो उस महिला का पति पुरुष के खिलाफ व्यभिचार का केस दर्ज़ करा सकता है और इसमें उस विवाहित महिला के खिलाफ केस दर्ज़ कराने का कोई प्रावधान नहीं है। 
  • इस अपराध के लिये भारतीय दंड संहिता में पाँच साल की कैद और जुर्माना अथवा दोनों का प्रावधान है। 
  • इस प्रावधान में एक विचारणीय तथ्य यह भी है कि इसमें अपराध पत्नी के खिलाफ होता है और शिकायतकर्त्ता केवल पति ही हो सकता है।
  • व्यभिचार के मामले में उस पुरुष को शिकायत करने का अधिकार है, जिसकी पत्नी किसी और से संबंध बनाती है, लेकिन उस महिला को शिकायत का कोई अधिकार नहीं है, जिसके पति ने किसी और से संबंध बनाए हों।
  • एडल्टरी का केस सीधे थाने में दर्ज़ नहीं हो सकता। इसके लिये पीड़ित पति को संबंधित मैजिस्ट्रेट के सामने शिकायत करनी होगी और तमाम साक्ष्य प्रस्तुत करने होंगे। उसकी शिकायत से संतुष्ट होने के बाद अदालत आरोपी को समन जारी कर सकती है और फिर मुकदमा चलाया जा सकता है।

इस प्रकार इन मामलों में केवल पुरुष को दोषी बनाना भेदभावपूर्ण है, जबकि विवाहेतर संबंधों में पुरुष व महिला दोनों की समान भागीदारी होती है।

प्रमुख बिंदु 

  • 1954 के युसूफ अब्दुल अज़ीज मामले में 5 जजों की संवैधानिक पीठ की ओर से जस्टिस विवियन बोस ने कहा था कि IPC की धारा- 497 के अंतर्गत किसी महिला को अपराधी इसलिये नहीं माना जा सकता, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 15(3) विधायिका को महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिये विशेष प्रावधान करने की छूट देता है।
  • 1985 के विष्णु मामले में तीन जजों की पीठ ने 1954 के निर्णय को आधार बनाया तथा इस प्रावधान को असंवैधानिक करार देने की मांग को केवल एक ‘भावनात्मक अपील’ कहकर खारिज़ कर दिया और कहा कि दूसरे की पत्नी से संबंध बनाने वाला व्यक्ति भारतीय समाज के लिये ज़्यादा बड़ी बुराई है।
  • 1988 के वी.रेवती बनाम भारत संघ मामले में दो जजों की बेंच ने इस कानून में लैंगिक भेदभाव की बात को खारिज़ किया और कहा कि इस कानून में पुरुष ही व्यभिचार का दोषी हो सकता है। 

इस कानून की संवैधानिकता संदिग्ध क्यों है ?

  • यह प्रावधान पुरुषों के प्रति भेदभाव करता है और इससे संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन होता है।
  • यह लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराना औपनिवेशिक काल का कानून है, जब महिला को संपत्ति समझा जाता था। वर्तमान आधुनिक समाज में इसकी प्रासंगिकता संदिग्ध है।
  • यदि पति अपनी पत्नी और एक दूसरे व्यक्ति के बीच संसर्ग की सहमति देता है, तो व्यभिचार का अपराध अमान्य हो जाता है, जिससे महिला महज एक वस्तु के रूप में स्थापित हो जाती है, जो लैंगिक न्याय और समता के अधिकार के संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ है।
  • आपराधिक कानून महिला और पुरुष के लिये बराबर हैं, जबकि IPC की धारा-497 में लैंगिक तटस्थता का अभाव दिखाई देता है। 
  • कोई भी कानून महिलाओं को इस आधार पर संरक्षण नहीं दे सकता कि व्यभिचार के मामले में हमेशा महिलाएँ ही पीड़ित होती हैं। 

मामले की सुनवाई करते समय भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि अब समय आ गया है कि समाज इस बात को स्वीकार करे कि एक महिला हर दृष्टि से उसके पति के बराबर है। सामाजिक प्रगति के साथ लोगों को नए अधिकार भी मिलते हैं और नए विचारों की पीढ़ी भी जन्म लेती है। अतः इस पुराने कानून की संवैधानिकता पर विचार किया जाना समय की मांग है।

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